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________________ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा ऋद्धियों की अनित्यता की चिन्ता हो आई और उन्होंने प्रशस्तपरिणामी मार्ग को स्वीकार करने का निश्चय किया (तत्रैव : पृ. ३४५) । यहाँ परम्परागत अर्थ की दृष्टि से दर्पणगृह में विरक्ति का कारण होता था - अपने कानों के पास पके हुए बालों का दिखाई पड़ना । परवर्ती काल में गोस्वामी तुलसीदास ने भी राजा दशरथ के बारे में लिखा है कि राजा दशरथ ने स्वभाववश दर्पण हाथ में लिया और उसमें अपना मुँह देखकर मुकुट को सीधा किया। तभी उन्होंने देखा कि कानों के पास बाल सफेद हो गये हैं, और मानों बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा 'हो कि हे राजन् ! श्रीराम को युवराज-पद देकर अपने जीवन और जन्म को सुफल क्यों नहीं करते ?" कहना न होगा कि 'वसुदेवहिण्डी' में भी दर्पणगृह में उत्पन्न विरक्ति के कारण, राजाओं द्वारा अपने पुत्र को राज्य सौंपकर प्रव्रज्या ले लेने का वर्णन उपलब्ध होता है । ४२८ राजकुल : राज्य - प्रशासन के वर्णन के क्रम में संघदासगणी ने राजकुल का भी भव्य चित्र अंकित किया है। राजकुल अन्तःपुर के राजदरबार (दीवाने - खास) का प्रतिरूप होता था । राजकुल को राजभवन भी कहा गया है। उसकी ड्योढ़ी राजद्वार कहलाती थी । राजद्वार पर पहुँचने के बाद राजा को सूचना देकर ही राजकुल के भीतर प्रवेश किया जाता था। राजा जरासन्ध के पुरुष (राजभट) वसुदेव को बन्दी बनाकर जब राजद्वार पर ले गये थे, तब उन राजभटों ने द्वारपाल से कहा था कि राजा को वसुदेव के आने की सूचना दे दी जाय (वेगवतीलम्भ: पृ. २४८ ) । राजकुल की अपनी मर्यादा होती थी, इसलिए वसुदेव राजभटों से झगड़ना नहीं चाहते थे ('न य विवदामि रायउले, अवस्सं मज्जाया अस्थि ति ; तत्रैव) । राजा राजकुल के भीतरी भाग में रहता था, जहाँ उसके लिए सिंहासन सजा रहता था । महल के इस भीतरी भाग को अभ्यन्तरोपस्थान (गर्भगृह) कहा जाता था । अभ्यन्तरोपस्थान में विभिन्न कार्यों के सम्पादन के लिए स्त्री-प्रतिहारियों की नियुक्ति की जाती थी, जिनकी सहायता करनेवाली अनेक दासियाँ रहती थीं। वसुदेव जब वैताढ्य पर्वत स्थित सिंहदंष्ट्र के राजोद्यान में पहुँचे, तब प्रतिहारी ने परिचारिकाओं के साथ मिलकर उन्हें पहले स्नान कराया, उसके बाद वे उन्हें नगरपथ से होकर राजभवन में ले गईं, जहाँ उनकी अर्घ्य आदि से पूजा की गई। तब उन्हें अभ्यन्तरोपस्थान में ले जाया गया, जहाँ उन्होंने राजा सिंहदंष्ट्र को सिंहासन पर विराजमान देखा (नीलयशालम्भ : पृ. १७९) । राजकुल में अभ्यन्तरोपस्थान के साथ ही बाह्योपस्थान भी होता था । इन दोनों उपस्थानों के लिए अलग-अलग प्रतिहारियों की नियुक्ति होती थी । राजा अशनिवेग की पुत्री श्यामली के लिए नियुक्त, उद्यान आदि में साथ देनेवाली बाह्य प्रतिहारी का नाम मतकोकिला था और नगर के द्वार पर कलहंसी नाम की प्रतिहारी नियुक्त थी, जो परिचारिकाओं की १. रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा । बदनु श्रवन समीप भए सित केसा | बिलोकि मुकुट सम कीन्हा ॥ मनहु जठरपन अस उपदेसा ॥ नृप जुबराजु राम कहुँ देहू । जीवन जनम लाभ किन लेहू ॥ (रामचरितमानस : अयो. २. ३-४)
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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