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________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन ३९१ तमतमा नाम की, नरक की छठी भूमि पर तैंतीस सागरोपम काल (दस कोटाकोटि पल्योपम) तक दुःख भोगता रहा और तिर्यक्, नारकीय और कुमनुष्य-भव में चक्कर काटता रहा (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २७८)। नरक की पहली भूमि रत्नप्रभा का उल्लेख करते हुए कथाकार ने जिस कथाप्रसंग की अवतारणा की है, उसमें कहा गया है कि कंचनपुर के दो वणिक् रत्न अर्जित करने के लिए एक साथ लंकाद्वीप गये। रत्न कमा करके वे दोनों प्रच्छन्न भाव से सन्ध्या में कंचनपुर लौटे । कुवेला में रत्न की कहीं चोरी न हो जाय, यह सोचकर दोनों ने अर्जित रत्न को कटरेंगनी के झाड़ के नीचे गाड़ दिया और रात में दोनों अपने-अपने घर चले गये। किन्तु, सुबह होने पर उनमें एक वणिक् कटरेंगनी के झाड़ के नीचे गड़े हुए रत्न को निकाल ले गया। उसके बाद यथानिश्चित समय पर दोनों साथ वहाँ आये और रत्न को न देखकर एक दूसरे पर शंका करने लगे। फिर, क्रमश: दोनों में बाताबाती, लत्तमजुत्ती, नोंच-खसोट और पथराव शुरू हो गया। इस प्रकार, रौद्रध्यान की स्थिति में दोनों मरकर रत्नप्रभा नामक पहली नरकभूमि में उत्पन्न हुए (प्रतिमुख, पृ. ११२)।। इसी प्रकार, नरक की दूसरी भूमि शर्कराप्रभा एवं अन्य नरकभूमियों के सन्दर्भ में कथाकार ने एक कथाप्रसंग में बताया है कि नास्तिकवादी हरिश्मश्रु माया की बहुलता के कारण तिर्यक् (पशु) योनि की आयु प्राप्त करके असातावेदनीय (दुःख के कारणभूत कर्म) की शृंखला में बँधकर मत्स्ययोनि में उद्वर्तित हुआ। उस योनि में वह जीव (पंचेन्द्रिय)-वध करके मांसाहार में आसक्त रहकर एक करोड़ पूर्व तक जीवित रहा और नारकी आयु अर्जित कर छठीं पृथ्वी (तमतमा) पर उत्पन्न हुआ। वहाँ भी पुद्गलपरिणामजनित परस्पर उत्पीडन-निमित्तक दुःख को बाईस सागरोपम काल तक भोगकर सर्पयोनि में उद्वर्तित हुआ। वहाँ भी उस भव से सम्बद्ध रोष से कलुषितचित्त होकर मरा और पाँचवीं पृथ्वी (धूमप्रभा) पर सत्रह सागरोपम की अवधि तक नारकीय योनि में रहा। वहाँ से फिर तिर्यक् योनि की आयु प्राप्त कर बाघ बन गया। वहाँ भी वह प्राणिवध से मलिनहृदय होकर मरा और चौथी पृथ्वी (पंकप्रभा) पर उत्पन्न हुआ। वहाँ वह नारकी के रूप में दस सागरोपम काल तक कष्ट भोगकर मरा और कंकपक्षी (बगुला) के रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ भी जीववध में उद्यत रहने से दारुण चित्त लेकर मरा और तीसरी पृथ्वी (बालुकाप्रभा) पर उत्पन्न हुआ। वहाँ वह सात सागरोपम काल तक असह्य ताप की वेदना और परम अधार्मिक देवों के उत्पीडन का अनुभव करके 'साँप हो गया। वहाँ भी दुःख और मृत्यु का कष्ट भोगकर पुन: शर्कराप्रभा नाम की दूसरी पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ। वहाँ तीन सागरोपम काल तक दुःखाग्नि में जलता रहा, फिर संज्ञी (पंचेन्द्रिय) जीव में उद्वर्तित हुआ। उसके बाद वह नरक की पहली रत्नप्रभा भूमि पर नारकी के रूप में उत्पन्न हुआ (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २७७-२७८)। इस प्रकार, कथाकार ने यहाँ संक्षिप्त रूप में छह नरकभूमियों और उनके दुःखभोग की अवधि तथा स्वरूप का वर्णन उपन्यस्त कर दिया है । इसी प्रकार, अन्यत्र भी पाँचवीं पृथ्वी (धूमप्रभा) का वर्णन आया है। एक शाखा से दूसरी शाखा पर क्रीडापूर्वक उछलते-कूदते वानरयूथ के अधिपति ने जब कुक्कुट सर्प (पूर्वभव का श्रीभूति पुरोहित) को पकड़कर मार डाला था, तब वह पाँचवीं पृथ्वी में सत्रह सागरोपम काल तक के लिए नारकी हो गया था और वहाँ उसने सुखदुर्लभ परम अशुभ निष्पतिकार्य वेदना का अनुभव किया था (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५७) ।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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