SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६२ . वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा स्नान कराया था। स्नान के बाद पुन: शरीर पर तैलाभ्यंग किया। फिर, वसुदेव के कपड़ा पहरने के बाद वनमाला का पिता, जो राजा कपिल का महाश्वपति था, उनके लिए भोजन ले आया (कपिलालम्भ : पृ. १९९) ।इसी प्रकार, वसुदेव जब राजा अभग्नसेन के आग्रह पर राजभवन चलने को तैयार हुए, तब उनकी सवारी के लिए हाथी उपस्थित किया गया। वसुदेव महावत को पीछे बैठने के लिए कहकर स्वयं गजमस्तक पर जा बैठे। कुतूहली जनों ने उनका जय-जयकार किया। राजा विस्मित हो उठा। दर्शकों से अवरुद्ध मार्ग पर वसुदेव धीरे-धीरे हस्तिसंचालन कर रहे थे। लोग उनके रूप, वय और बल का वर्णन करते हुए उनकी प्रशंसा कर रहे थे। चित्रकला में कुशल कुछ लोग कह रहे थे: “ओह ! यह पुरुष यहाँ रहे, तो हमारे लिए बड़ा अच्छा प्रतिच्छन्द (मॉडेल) बन सकता है।" महलों की खिडकियों में खडी यवतियाँ उनपर घ्राण और मन को सख देनेवाले फूल तथा चूर्ण बिखेर रही थीं। वसुदेव, क्रम से तोरण और वनमाला से अलंकृत राजभवन पहुँचे। वहाँ उनकी अर्घ्यपूजा की गई। उसके बाद वह हाथी से उतरे और विमान जैसे महल के भीतर गये। राजा के परिजन परितोषविसर्पित आँखों से उन्हें देख रहे थे। उन्होंने अपने पैर धोये, फिर तैलाभ्यंग के समय पहनने के योग्य कपड़े धारण किये। कुशल दासियों ने उनके शरीर पर सुगन्धित तैल लगाकर मालिश की। फिर, स्नानागार में ले जाकर दासियों ने उन्हें मंगलकलश से स्नान कराया। उसके बाद वे उत्तम वस्त्र पहनकर भोजन-मण्डप में सुखपूर्वक बैठे और सोने के बरतनों में परोसा गया स्वादिष्ठ भोजन उन्होंने ग्रहण कीया (पद्मालम्भ : पृ. २०३-२०४) । ___ उपर्युक्त कथा-प्रसंग से न केवल प्रसाधन के विविध साधनों का, अपितु तत्कालीन अनेक सांस्कृतिक तथ्यों का भी दिग्दर्शन होता है। इससे तद्युगीन समाज की समृद्धि, रुचि-परिष्कार और विलासमय जीवन की सौन्दर्य से अभिभूत करनेवाली मनोरम झाँकी मिलती है और स्वयं चरित्रनायक वसुदेव संस्कृति के शोभापुरुष के रूप में उभरकर सामने आते हैं। तत्कालीन प्रसाधनों में पाँच रंग के फूल और पाँच रंग के गन्धचूर्ण अधिक व्यवहार में आते थे। स्नान के पूर्व तेल-उबटन का प्रयोग सामान्य तौर पर प्रचलित था। नहाने के लिए स्नानागार होते थे, जहाँ अनेकानेक मंगलघट जल से भरे रखे रहते थे। इत्र का लेप या अंगराग का विलेपन भी खूब जमकर किया जाता था। अन्त:पुर का सारा वातावरण उत्तेजक और सुगन्धिमय होता था। शरीर पर खुशबूदार पाउडर भी खूब मले जाते थे। धूप, विशेषकर कालागुरु के धूप-धूम से महल का कोना-कोना अधिवासित रहता था। पँचरंगे फूलों की तो भरमार रहती थी। शोभा और सजावट तयुगीन सामाजिक जीवन की सांस्कृतिक विशेषता थी। विभिन्न रलों और अलंकारों से सारा परिवेश रंगमय दीप्ति से उल्लसित रहता था। रेशमी वस्त्रों की विविधताएँ मनोमोहक रूप-विन्यास और (आकर्क अंग-लावण्य का वितान तानती थीं। इस प्रकार, कहना न होगा कि संघदासगणी ने तत्कालीन अलंकृत संस्कृति का अद्भुत साम्राज्य ही उपस्थित कर दिया है। वाद्ययन्त्र : संघदासगणी द्वारा उल्लिखित वाद्य के सम्बन्ध में, प्रस्तुत शोधग्रन्थ के ललितकला-प्रकरण में चर्चा हो चुकी है। यहाँ लोकसांस्कृतिक दृष्टि से कतिपय वाद्ययन्त्रों का विवरण-विवेचन अप्रासंगिक नहीं होगा। सघदासगणी द्वारा यथाप्रस्तुत विवरण से यह स्पष्ट होता है कि उस समय
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy