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________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन ३५३ “उसके बाद सुखासन पर बैठे हुए वसुदेव को वर के योग्य उपकरणों से सजाया गया । मंगलमय परिवेशवाली सौभाग्यवती स्त्रियों से घर भर गया । उज्ज्वल वेश में परिजनों के साथ बन्धुमती बाहर आई । उस समय वह दूर्वांकुर मिश्रित फूल की माला पहने हुए थी, कानों में उत्तम फूलों के कुण्डल झूल रहे थे, उसका केशपाश चूड़ामणि की किरणों से अनुरंजित था, उज्ज्वल कनक- कुण्डल की प्रभा से अनुलिप्त आँखों से उसका मुख कमल जगमगा रहा था, लाल-लाल हथेलियोंवाली उसकी लता जैसी लचीली भुजाएँ मनोहर स्वर्ण-केयूर से अलंकृत थीं, तरल हार से अलंकृत पुष्ट स्तनों के भार से उसकी देह का मध्यभाग मानों कष्ट पा रहा था और करधनी से बँधे जघन-मण्डल की गुरुता से उसके कमल जैसे पैर परिश्रान्त-से प्रतीत होते थे, कमल के विना भी वह लक्ष्मी की तरह शोभा बिखेर रही थी, स्नान और प्रसाधन के विविध पात्र लिये दासियों से वह घिरी हुई थी और सफेद बारीक रेशम के वस्त्र पहने और चादर ओढ़े हुए (बन्धुमतीलम्भ: पृ. २८०) ।” संघदासगणी के इस नख-शिख-वर्णन से यह स्पष्ट है कि वह उस युग के विभिन्न अलंकरणों से ही परिचित नहीं थे, अपितु उसकी परिधान - पद्धति और शृंगार - साधनों द्वारा की जानेवाली प्रसाधन - विधि से भी पूर्णतया अवगत थे। सफेद बारीक रेशमी वस्त्र के लिए कथाकार ने 'काशिकसित क्षौम' (प्रा. 'कासिकसियखौमपरिहाणुत्तरीया) शब्द का प्रयोग किया है । दीप्त्यर्थक 'काश्' धातु से 'काशिक' शब्द निष्पन्न हुआ है। इसलिए, स्पष्ट है कि उस युग में सफेद बारीक चमकनेवाले रेशमी वस्त्र को ही 'काशिक' कहा जाता होगा । यों, 'काशिक' को काशी नामक स्थान- विशेष से जोड़ा जाय, तो प्रसिद्ध बनारसी सफेद सिल्क की कीमती साड़ी की ओर भी . कथाकार का संकेत अभासित होता है । उस युग में, राजभवन में पलंग पर पट्टतूलिका के आस्तरण का प्रयोग प्रचलित था और उत्तम वस्त्र को 'प्रवर वस्त्र' ('पवरवत्थपरिहिओ; पृ. २३० ) कहा जाता था । मदनवेगा के साथ विवाह के बाद वसुदेव ने प्रवर वस्त्र (उत्तम वस्त्र) पहने और परम स्वादिष्ट भोजन किया। उसके बाद वह पट्टतूलिका के आस्तरणवाले पलंग पर बैठे, फिर सुखपूर्वक सो गये ('सयणीए पट्टतूलियऽच्छुरणे संविट्ठो, सुहपसुत्तो; तत्रैव, पृ. २३० ) । पट्ट, अर्थात् रेशम की तरह मुलायम रुई को 'पट्टतूलिका' कहते हैं । स्पष्ट है कि उस युग में तकिये और बिछावन में जिस रुई का प्रयोग होता था, वह रेशम की भाँति मुलायम होती थी । भर्तृहरि ने भी अपने 'वैराग्यशतक' में पट्टसूत्र और उपधान (श्लोक सं. ७४ और ७९ ) की चर्चा की है। 1 उस युग में, एक प्रकार का, हंस की तरह उजला रेशमी वस्त्र प्रचलित था, जिसे कथाकार ने ‘हंसलक्षणप' कहा है । ‘प्राकृतशब्दमहार्णव' में 'हंसलक्षण' शुक्ल या श्वेत का पर्याय है । 'वसुदेवहिण्डी' में नीलयशा के नखशिख-वर्णन में उसे कहा गया है: “हंसलक्खणाणि धवलाणि खोमाणि निवसिया (नीलयशालम्भ: पृ. १७९) । ” अर्थात्, वह हंसधवल रेशमी वस्त्र पहने हुई थी। इसी प्रकार, वसुदेव जब मगध- जनपद में थे, तभी जरासन्ध के आदमियों ने उन्हें बन्दी बना लिया और म्यान से तलवार निकालकर खड़े हो गये। वैसी संकटपूर्ण स्थिति में वसुदेव नमस्कार - मन्त्र जपने लगे, जिसके प्रभाव से देवी-रूप में कोई वृद्धा स्त्री उन्हें ऊपर उठा ले गई और दूर ले जाकर धरती पर छोड़ आई । वृद्धा स्त्री हंसलक्षण सूक्ष्मोज्ज्वल वस्त्र से अपना शरीर ढके हुए थी, जिससे वह फेनपट से आवृत गंगा जैसी लगती थी (प्रभावतीलम्भ: पृ. ३५० ) । इस प्रसंग से यह सूचित होता है कि विद्याधरियाँ प्रायः
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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