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________________ वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप दीपक नाम के प्रसिद्ध पराक्रमी राजा ने 'सात' नामक यक्ष से रक्षित एक बालक प्राप्त किया, उसी का नाम सातवाहन रखा गया और वही आगे चलकर सार्वभौम राजा हुआ। एक बार वसन्तोत्सव के समय राजा सातवाहन रानियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। पानी के छींटों की बौछार करती हुई, स्तनभार से क्लान्त एक सुकुमार रानी राजा से बोली : “मुझे पानी से मत (मोदकैः: : = मा + उदकैः) मारो।" राजा व्याकरण से अनभिज्ञ था । 'मोदकैः' का सन्धि-विच्छेद न कर पाने के कारण उसने रानी के लिए बहुत-से लड्डू मँगवाये । इसपर शब्दशास्त्रज्ञ रानी ने राजा at मूर्ख कहा और अनेक प्रकार से फटकारा भी । राजा लज्जित होकर चिन्ता में पड़ गया'पाण्डित्य की शरण में जाऊँ या मृत्यु की ?' १७ गुणाढ्य ने राजा सातवाहन को छह वर्षों में व्याकरण सिखा देने का आश्वासन दिया, किन्तु राजा के अन्य मन्त्री शर्ववर्मा ने ईर्ष्यावश छह महीनों में ही व्याकरण सिखाने की बात राजा से कही । इस अनहोनी बात को सुनकर गुणाढ्य ने क्रोध में आकर शर्ववर्मा से कहा : “यदि तुम छह महीने में राजा को व्याकरण सिखा दोगे, तो मैं संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश, इन तीनों मनुष्य-भाषाओं को सदा के लिए छोड़ दूँगा ।” शर्ववर्मा के पढ़ाने पर परमात्मा की कृपा से छह महीनों में ही राजा को सभी विद्याएँ स्वयं प्राप्त हो गईं। राजा ने शर्ववर्मा की राजरत्नों से गुरुपूजा की। प्रतिज्ञानुसार, जैसा पहले कहा गया, गुणाढ्य तीनों मनुष्य भाषाओं को छोड़ देने के कारण मौन रहने लगा । किन्तु मौनी होने के कारण वह राजकार्य तथा सांसारिक व्यवहारों से पृथक् रहने लगा और न चाहते हुए भी राजा से आज्ञा लेकर दो शिष्यों के साथ उस नगर से निकला और विन्ध्यवासिनी देवी के दर्शन के निमित्त विन्ध्याटवी में प्रविष्ट हुआ। वहाँ गुणाढ्य ने पिशाचों के परस्पर वार्त्तालाप को सुनकर पैशाची भाषा सीखी, जो संस्कृत, प्राकृत तथा लोकभाषा (अपभ्रंश) से विलक्षण चौथी भाषा थी । गुणाढ्य ने मौन त्याग कर पैशाची बोलना प्रारम्भ किया । जन्म-वृत्तान्त सुनने के बाद, गुणाढ्य के अनुरोध पर, काणभूति ने उसे पैशाची भाषा में. सात कथाओंवाली दिव्यकथा कह सुनाई, जो उसने पुष्पदन्त (वररुचि) से सुनी थी। विद्याधरों द्वारा हरण ये जाने के भय से गुणाढ्य ने उस कथा को सात वर्षों में, सात लाख छन्दों में, घोर जंगल में स्याही और कागज न मिलने के कारण अपने रक्त से पत्ते पर ' लिखा। अन्त में, पार्वती के आज्ञानुसार गुणा ने उस दिव्यकथा के पृथ्वी पर प्रसार के निमित्त अपने दो शिष्यों - गुणदेव और नन्दिदेव से कहा और उन्हें कथा-पुस्तक सौंपकर राजा सातवाहन के पास भेज दिया। शिष्यों ने राजा सातवाहन के पास जाकर गुणाढ्य का वह उत्तम काव्य उसे दिखलाया । पिशाचाकार गुणाढ्य के शिष्यों और पिशाच- भाषा में रक्त से लिखे उस काव्य को देखकर राजा सातवाहन ने उन्हें धिक्कारा। राजा से प्राप्त धिक्कार की बात शिष्यों से सुनकर गुणाढ्य को अत्यन्त खेद हुआ । उसने शिष्यों के साथ समीपवर्ती पर्वत पर जाकर एक अग्निकुण्ड तैयार १. सात लाख श्लोकों को अपने रक्त से लिखना सम्भव नहीं प्रतीत होता, अतः आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह अनुमान सही है कि “कागज का काम सूखे चमड़ों से लिया गया और स्याही का काम पशुओं के रक्त से। पिशाचों की बस्ती में और मिल ही क्या सकता था।” (द्र. 'हिन्दी-साहित्य का आदिकाल', द्वि. सं., सन् १९५७ ई., तृतीय व्याख्यान, पृ. ६० )
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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