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________________ ३४८ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा करता है, यह कथाकार का सिद्धान्तवाक्य है ("परिक्खवियकिलेसा नेव्वाणलाहिणो भवंति"; रक्तवतीलम्भः पृ. २१९) । यदि स्त्री क्लेश-क्षपण की शक्ति से सम्पन्न हो जाती है, तो वह भी मोक्षलाभ कर लेती है । यहाँ ज्ञातव्य है कि दिगम्बर जैनागमवादियों ने स्त्री को मोक्ष का अधिकारी नहीं माना है; किन्तु श्वेताम्बर जैनाचार्य कथाकार संघदासगणी ने स्त्री को भी मोक्षमार्ग का अधिकार देकर, स्त्री के व्यक्तित्व को समानाधिकार के आधार पर मूल्यांकित करते हुए ततोऽधिक शास्त्रीय उदारता और वैचारिक स्वाधीनता से काम लिया है । स्त्रियाँ अवधिज्ञानी भी हुआ करती थीं। विद्यासम्बन्धी ऋद्धियों से भी वे सम्पन्न होती थीं । वेश्याएँ भी तप करके सिद्धशिला (मोक्ष) पर अधिकार कर लेती थी। - संघदासगणी ने समूह-दीक्षा का भी उल्लेख किया है। राजकन्या सुमति ने सात सौ कन्याओं के साथ सुत्रता आर्या के निकट समूह-दीक्षा ली थी। हल और चक्रधारी बलदेव और वसुदेव ने स्वयं सुमति का निष्क्रमणाभिषेक किया था। सुमति ने भी तप : कर्म अर्जित करके केवलज्ञान प्राप्त किया और क्लेश-कर्म को नष्ट कर सिद्धि लाभ की। प्रथम गणधर भरतपुत्र ऋषभसेन थे और भरत की बहन ब्राह्मी प्रथम प्रवर्तिनी' (भिक्षुणीप्रमुख) के पद पर प्रतिष्ठित हुई थीं। गणधर और प्रवर्तिनियाँ ही तीर्थंकरों के प्रवचनों के व्याख्याता होते थे। साधु एक राज्य से दूसरे राज्य में अप्रतिहत भाव से विहार करते थे। साधुओं के लिए गीत, नृत्य, नाट्य आदि वर्जित थे। धार्मिक विश्वासमूलक संस्कारों में पुनर्जन्म भी अपना उल्लेखनीय महत्त्व रखता है । संघदासगणी ने भी पूर्वभव का आश्रय लेकर ही अपनी कथाओं में वैचित्र्य और विच्छित्ति उत्पन्न की है । कहना तो यह चाहिए कि वसुदेवहिण्डी' की कथाओं के विकास की आधारभूमि या मूलस्रोत पूर्वभव ही है। पूर्वभव की प्रीति या वैर का अनुबन्ध परभव में भी अनुसरण करता है। परभव में योनिविशेष में वैर-प्रीति का क्रमभंग भी होता था। कथाकार ने पूर्वभव के क्रम में 'तद्भवमरण' की भी चर्चा की है। यह वह मरण है, जिससे पूर्वभव के समान ही परभव में भी जन्म होता है, अर्थात् पूर्वजन्म में मनुष्य होकर मरने के बाद परजन्म में भी मनुष्य ही होने को तद्भवमरण' कहते हैं। इस प्रकार, संघदासगणी ने 'बृहत्कथा' का जैन रूपान्तरण प्रस्तुत करने के क्रम में, 'वसुदेवहिण्डी' में जगह-जगह कथाच्छल से जैनाचारों और श्रमण-मार्गोक्त संस्कारों का विपुल विन्यास आगमोचित पद्धति से किया है। सच पूछिए, तो विद्वान् कथाकार ने अपनी इस महत्कथाकृति में जैनागमों के सम्पूर्ण वाङ्मय के सार को बड़ी निपुणता से संगुम्फित करके अपने अगाध आगम-ज्ञान की पारगामिता का विस्मयकारी परिचय दिया है। धर्म-सम्प्रदाय : भारतीय संस्कृति से धर्म और सम्प्रदाय का सघन सम्बन्ध है। इसीलिए, संघदासगणी ने श्रमण-धर्म और सम्प्रदाय की चर्चा के परिवेश में कतिपय ब्राह्मण-धर्म और सम्प्रदायों का भी उल्लेख किया है। स्वयं संघदासगणी श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के वाचक या विद्वान् थे। यह बात उनके द्वारा किये गये तीर्थंकरों के विवाह और राज्यभोग के उल्लेख से स्पष्ट है । इसके अतिरिक्त, यह भी १.सुबयअज्जासयासे, निक्खंता तपमज्जिणित्ता। केवलनाणं पत्ता, गया य सिद्धिं घुयकिलेसा ॥ (इक्कीसवाँ केतुमतीलम्भ : पृ. ३२८)
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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