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________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन जब युवती हो जाती थीं, तब राजा उनके लिए कुल, रूप और विज्ञान के अनुकूल वरों की खोज के लिए अपने मन्त्रियों से परामर्श करते थे और वरों का चुनाव करके उस सम्बन्ध में उचित निर्देश देने का भार भी मन्त्रियों को ही सौंपते थे। ("चिंतेऊण कुल-रूव-विण्णाणसरिसं से वरं निद्दिसह त्ति"; केतुमतीलम्भ : पृ. ३१०)। संघदासगणी ने पिता और पुत्री में भी विवाह की विशेष परिस्थिति उपन्यस्त की है। इस सम्बन्ध में उन्होंने एक बड़ी रतिकर कथा लिखी है, जो ब्राह्मण-पुराणों में प्रसिद्ध दक्षप्रजापति की कथा का रोचक जैन रूपान्तर है : पोतनपुर का राजा दक्ष अपनी सुलक्षणा पुत्री मृगावती को अतिशय रूप-लावण्य से विभूषित देखकर कामाधीन हो गया। दक्ष ने मृगावती की मदभरी बातें, वदनासव के मद, आँखों को ठहरा लेनेवाले रूप, मन को चुरा लेनेवाली हँसी और शरीर के स्पर्श को अन्य युवतियों से विशिष्ट मानते हुए सोचा : “यदि इस स्त्रीरत्न का भोग नहीं करता हूँ, तो मेरा मनुष्य-जन्म और जीवन व्यर्थ है।" उसके बाद उसने पौरवर्ग के मुखिया को बुलाया और स्वागत-सत्कार करके उससे पूछा : “मेरे नगर या अन्त:पुर में उत्पन्न रत्न का भागी कौन है ?” मुखिया बोला: "स्वामी ! आप हैं।" मुखिया को विदा करके दक्ष ने मृगावती से कहा : “बाल हिरनी जैसी चंचल आँखोंवाली प्रिये ! मेरी ओर देखो, मेरी पत्नी बन जाओ। आज ही तुम मेरे सम्पूर्ण कोष की अधिकारिणी हो जाओ।” मृगावती ने पिता को चेतावनी दी : “तात ! मुझे अपवचन कहना आपके योग्य नहीं है। क्या आप पाप से नहीं डरते? इस प्रकार, सज्जनों द्वारा निन्दनीय वचन बोलना बन्द करें। आप ऐसा न बोलें और न मैं ऐसा सुनूँ ।" राजा ने नास्तिक दर्शन और देहवादी दार्शनिक पण्डित की आड़ लेकर अपने यौन स्वार्थ को समर्थन देते हुए कहा : “तुम परमार्थ नहीं जानती हो। क्या तुमने महापण्डित हरिश्मश्रु का पूर्वकथित मत नहीं सुना? देह से भिन्न कोई जीव नहीं है, जो विद्वानों द्वारा वर्णित पुण्य या पाप का फल भोगे। इसलिए, पाप नाम की कोई वस्तु नहीं। तुम लक्ष्मी की अवमानना मत करो।” बाला मृगावती राजा की शृंगारपूर्ण मीठी-मीठी बातों से, फुसलावे में आ गई और राजा दक्ष ने प्रजा (बेटी) को पत्नी के रूप में स्वीकार किया, इसलिए वह 'प्रजापति' कहलाने लगा (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २७५)। 'वसुदेवहिण्डी' की यह विशुद्ध रत्यात्मक कथा एक अपवाद है। अन्यथा, प्राय: सभी कामकथाएँ धर्मकथाओं में परिणत हो जाती हैं। पुत्री के साथ यौनाचार के बाद भी दक्ष को कर्मबन्ध नहीं हुआ और न तज्जन्य अनेक भवों की यात्रा ही करनी पड़ी और न सातवीं पृथ्वी में रहने का कष्ट ही उठाना पड़ा। मुखिया से उसने राजा के लिए राज्य-भोग के सर्वाधिकार का समर्थन भी पहले ही करा लिया, इसलिए प्रजा की ओर से भी कोई विरोध नहीं हुआ। पत्नी के साथ अपनी पुत्री को भी अंकशायिनी, बनानेवाला राजा तो स्वयं समाज का एक विकृत सांस्कृतिक पक्ष है। साथ ही, इसका एक विकृत ऐतिहासिक पक्ष भी है कि मृगावती और दक्ष से उत्पन्न त्रिपृष्ठ (केशव का प्रतिरूप) अर्द्धभरतेश्वर बना। दक्षप्रजापति के अदण्डित चरित्रापकर्षण की यह पराकाष्ठा निश्चय ही विस्मयावह है। श्रमणवादी कथाकार ने यहाँ स्पष्ट ही यह संकेत किया है कि उस युग में नास्तिक राजा पाप-पुण्य की परवाह किये विना अनियन्त्रित यौनमेध करते थे। और, इनके वासनापुत्र, कृष्ण वासुदेव के प्रतिरूप होते थे। कृष्ण का यह जैन रूपान्तर
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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