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________________ ३३० वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा फल है?' 'अनास्रव' । 'अनास्रव का क्या फल है?' 'तपस्या' । 'तपस्या का क्या फल है?' 'निर्जरा' । 'निर्जरा का क्या फल है?' 'केवलज्ञान की प्राप्ति ही निर्जरा का फल है।' 'केवलज्ञान, का क्या फल है?' 'अक्रिया' । अक्रिया का क्या फल है?' 'अयोग' । 'अयोग का फल क्या है?' वृद्धपारगों के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वसुदेव ने कहा : 'अयोग का फल है सिद्धि (मुक्ति)-स्थान में गमन और निर्बाध सुख।' वसुदेव के इन उत्तरों से सभी वेदपारग सन्तुष्ट हो गये। परिषद् के प्रधानों द्वारा एक साथ उच्चरित साधुवाद से आकाश गूंज उठा। ग्रामप्रधान ने तो वसुदेव को तैंतीस देवताओं में अन्यतम घोषित किया और वस्त्राभूषणों से सम्मानित भी। शर्त के अनुसार, ग्रामप्रधान की पुत्री सोमश्री ने वसुदेव को पति के रूप में पाकर सनाथता का अनुभव किया। प्रस्तुत कथा सन्दर्भ में कथाकार ने जैनदर्शन का सार समाविष्ट कर दिया है और श्रमण-परम्परा के आर्यवेद का गूढार्थ भी उपन्यस्त किया है। यहाँ कथाकार ने 'वेद-परिषद्' का जैसा चित्र खींचा है, उससे स्पष्ट है कि उस युग की सभाएँ सच्चे अर्थ में ज्ञानवर्द्धिनी होती थीं और उनमें अधिकारी विद्वान् बड़े ठाट-बाट से सज्जित होकर भाग लेते थे और शास्त्रार्थ के क्रम में शिष्टता और सभ्यता का ततोऽधिक परिचय देते थे। सभाओं में उद्घोषक भी होते थे, जो सभा का सम्यक् संचालन करते थे तथा सभा के प्रारम्भ होने और उसके समाप्त होने की भी यथासमय घोषणा करते थे। विजेताओं को साधुवाद से सम्मानित तो किया ही जाता था, उन्हें वस्त्राभूषणों का उपहार भी दिया जाता था। कहना न होगा कि पुरायुग में आयोजित होनेवाली विभिन्न निरवद्य कला-गोष्ठियों और परिषदों में 'वेद-परिषद्' का भी अपना उल्लेखनीय स्थान था। इसलिए , कदाचित् संघदासगणी ने वेदाभ्यास और वेदशिक्षा से सम्बद्ध भारतीय संस्कार के सन्दर्भ में बहुत ही गम्भीर, साथ ही विशद और हृदयावर्जक ऊहापोह उपस्थापित किया है। विवाह-संस्कार : ___भारतीय सामाजिक जीवन में विवाह-संस्कार का पार्यन्तिक महत्त्व है। दाम्पत्य-जीवन का मूल विवाह ही है। इसीलिए, ब्राह्मण-परम्परा के वेदों में गार्हपत्याग्नि का सम्बन्ध स्त्रीसुख से जोड़ा गया है। संघदासगणी ने भी विवाह-संस्कार पर विविधता और विचित्रता के साथ प्रभूत प्रकाश डाला है। वसुदेव का विद्याधारी नीलयशा मातंगकन्या के साथ जिस समय विवाह हुआ था, उस समय का अपूर्व रमणीय चित्र (नीलयशालम्भ : पृ. १७९-१८०) संघदासगणी ने प्रस्तुत किया है : क्षणभर में प्रतीहारी आई। उसने और भी परिचारिकाओं के साथ मिलकर सैंकड़ों उत्सवों के साथ वसुदेव को स्नान कराया। उसके बाद वह उन्हें अपने नगर में ले गई। वसुदेव को देखकर उनके रूपातिशय से विस्मित लोग प्रशंसा करने लगे : “यह तो मनुष्य नहीं हैं, कोई देव हैं।” वसुदेव राजभवन में पहुँचे, जहाँ अर्घ्य से उनकी पूजा की गई। वहाँ से वे भवन के भीतरी भाग (गर्भगृह) में पहुँचे। वहाँ उन्हें सिंहासन पर बैठा राजा सिंहदंष्ट्र दिखाई पड़ा। वसुदेव ने उसे श्रेष्ठ पुरुष समझकर उसके समक्ष अंजलि बाँधी। प्रसत्रमुख राजा ने आसन से उठकर उन्हें अपनी बाँहों में भर लिया। उसके बाद उसने यथोपनीत आसन पर उन्हें बड़े आदर के साथ बैठाया। विद्याधर-वृद्धों ने आशीर्वाद दिये और पुरोहित ने पुण्याहवाचन किया। तदनन्तर, सिंहदंष्ट्र की पुत्री नीलयशा वहाँ आई। वह, दिशादेवियों से घिरी हुई पृथ्वी की भाँति, सखियों से घिरी हुई थी। हंसधवल रेशमी वस्त्र तथा कीमती गहने पहने हुई वह नीलमेघ में नवचन्द्र की किरणरेखा की तरह सुशोभित थी। उसके जूड़े में उजले फूल, दूर्वा और प्रवाल
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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