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________________ ३२० वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा पालन आदि को भी आत्मसात् किये रहती है। इससे संस्कृति और सभ्यता की समान्तरता भी स्पष्ट होती है। गहनता से सोचने पर यह स्पष्ट हो जायगा कि भारतीय सोलह संस्कारों में भी नैतिकतामूलक शारीरिक और मानसिक शुद्धता की समग्रता का सघन विनियोग हुआ है। मानसिक शिक्षा; शुचितामूलक शास्त्रविहित यज्ञादि कृत्य; शब्दों, वाक्यों आदि की शुद्धता, स्मरणशक्ति आदि तो संस्कार के स्वरूपगत अर्थ हैं, किन्तु कोशकारों में प्रसिद्ध आप्टे महोदय ने 'संस्कार' शब्द का बड़ा व्यापक अर्थ किया है। जैसे : शिक्षा, अनुशीलन, आसज्जा, भोज्य पदार्थ तैयार करना, शृंगार, सजावट, अलंकरण, अन्तःकरण, अन्तः शुद्धि, मनःशक्ति, अपने पूर्वजन्म के कृत्यों की वासना, मन पर पड़ी हुई छाप आदि । बृहत् हिन्दी - कोश (ज्ञानमण्डल, वाराणसी) में तो शुद्ध करनेवाले सम्पूर्ण कृत्यों के अलावा बाह्यजगत्-विषयक कल्पना, भ्रान्तिमूलक विश्वास; पौधों, जानवरों आदि का पालन-पोषण, धातु की चीजें माँजकर चमकाना प्रभृति समस्त शुद्धिपरक कृत्यों को संस्कार के अन्तर्गत परिगणित किया गया है। इस प्रकार, परिष्कारमूलक सभी कार्य 'संस्कार' शब्द से ही संज्ञित होते हैं और संस्कार तथा संस्कृति ये दोनों शब्द अर्थ की व्यापकता की दृष्टि से भिन्न नहीं हैं । फलतः, किसी देश, राष्ट्र, नगर, समाज, परिवार और व्यक्ति के सदाचार, सच्चिन्तन, सत्कर्म, सद्व्यवहार, सद्भाषा, सद्विचार, सद्भोजन, समीचीन वेशभूषा प्रभृति बाह्याभ्यन्तर कर्मों और भावनाओं की शुचितामूलक समग्रता या समुच्चय ही 'संस्कृति' शब्द से वाच्य है । अतएव, संघदासगणी की 'वसुदेवहिण्डी' में प्रतिपादित सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन भी विभिन्न भारतीय संस्कारों के परिप्रेक्ष्य में ही वांछनीय है । कहना न होगा कि संघदासगणी ने भारतीय संस्कृति का बहुत ही सूक्ष्म और तलस्पर्श अध्ययन किया था और इसीलिए वह अपनी इस महत्कथाकृति में संस्कृति के महान् व्याख्याता के रूप में उभरकर सामने आये हैं । निष्कर्षतः संघदासगणी द्वारा उपस्थापित संस्कृति पूर्वाग्रहों की छाया से सर्वथा मुक्त मूलत: 'समग्र संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है, जिसे हम 'संस्कृति के चार अध्याय' के प्रथितयशा लेखक राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में 'सामासिक संस्कृति' (कम्पोजिट कल्चर) कह सकते हैं। 'वसुदेवहिण्डी' से सूचना मिलती है कि उस युग में भी गर्भाधान, जातकर्म, नामकर्म आदि संस्कारों को बहुत अधिक महत्त्व प्राप्त था। राजगृह की इभ्यपत्नी धारिणी के पाँच स्वप्न देखने के बाद ही उसके गर्भ का आधान हुआ था । ब्रह्मलोक से च्युत देवता ही उसके गर्भ में आये थे। तभी, धारिणी को जिनसाधु की पूजा का दोहद उत्पन्न हुआ था और उसने स्वप्न में जम्बूफल का लाभ किया था, इसलिए नवजात शिशु का नाम 'जम्बू' रखा गया था (कथोत्पति: पृ. ३) । इस प्रकार, प्रत्येक तीर्थंकर की माता के, उनके चौदह ' या सोलह स्वप्न देखने के बाद ही, गर्भाधान की परम्परा प्रथित थी । ऋषभस्वामी की माता ने चौदह और महावीर स्वामी की माता ने सोलह शुभ स्वप्न देखे थे । उसके बाद ही उक्त तीर्थंकरों का अपनी-अपनी माताओं के गर्भ में आधान हुआ था। ऋषभस्वामी की माता मरुदेवी ने स्वप्न में ऋषभ (= वृषभ) को देखा था, इसलिए १. 'वसुदेवहिण्डी' में उल्लिखित चौदह महास्वप्न इस प्रकार हैं : गय-वसह सीह-अभिसेय-दाम-ससि - दिणयरं झयं कुम्भं । पठमसर-सागर - विमाण-भवण-रयणुच्चय-सिहिं - अट्ठारहवाँ प्रियंगुसुन्दरीलम्भ, पृ. ३०० च ॥
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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