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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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ऋतुओं में फूलने-फलनेवाले फूलों और फलों से लदकर सभी पेड़ निरुपद्रव भाव से झूमने लगते और प्रमुदित प्रजाएँ धर्मकार्य के साधन में उद्यत हो जातीं। राजा वैर और अमर्ष से मुक्त होकर, सुखाधिगम्य बनकर एवं दान-दया में तत्पर रहकर राज्य करते और वैराग्य होने पर जिस किसी को भी राज्य सौंपकर प्रव्रज्या ले लेते । नरेन्द्र और उनके पुत्र तथा इभ्य (व्यापारी) ऋद्धि-विशेष का परित्याग कर तीर्थंकर के चरणों आश्रय लेकर संयम स्वीकार कर लेते । ब्राह्मण, वैश्य और स्त्रियाँ अपने विशाल वैभव को छोड़कर, विषय-सुख के प्रति निराकांक्ष रहकर प्रव्रज्या ले लेते और श्रामण्य का अनुपालन करते । यदि कोई श्रामण्य के अनुपालन में असमर्थ होता, तो वह गृहधर्म स्वीकार करके तप के लिए उद्यत रहकर विहार करता (केतुमतीलम्भ: पृ. ३४३) ।”
तक
संघदासगणी का यही आदर्श राज्य या समाज परवर्त्ती रचनाकारों या समाजचिन्तकों की साहित्य-यात्रा के मार्ग में क्रोशशिला बनकर प्रतिष्ठित है । गोस्वामी तुलसीदास के रामराज्य भी उक्त समाज की ही कल्पना का स्वर अनुध्वनित है। जागरूक कथाकार ने राज्यशासित समाज का ऐसा मोहक चित्र खींचा है कि इसके समक्ष तथाकथित प्रजातन्त्रात्मक समाज की छवि भी धूमिल पड़ जाती है। किसी भी उन्नत समाज की कल्पना के लिए सामान्यत: तीन बातें प्रमुख रूप से लक्षणीय होती हैं- राज्य और जनता का अच्छा सम्बन्ध, जनता या प्रजा के लिए राज्य के सेवा-साधनों की सुलभता तथा व्यापारियों की अपरिग्रहशीलता । ये तीनों बातें किसी भी सद्राज्य के सामाजिक विकास की आधारशिलाएँ हैं । संघदासगणी ने अपने आदर्श समाज में इन तीनों विशेषताओं का सम्यक् समावेश किया है : प्रजा का प्रमुदित होकर धर्मकार्य में संलग्न रहना, राजा का सुखाधिगम्य (राजा तक आसानी से पहुँच होना तथा व्यापारियों का ऋद्धिविशेष को त्याग कर तीर्थंकराश्रित होना, ये तीनों गुण उन्न समाज के यथोक्त प्रमुख तीन लक्षणों में ही परिगणनीय हैं।
यहाँ कथाकार की और एक बात ध्यातव्य है कि उसने ब्राह्मणों, वैश्यों और स्त्रियों को विशाल वैभव का परित्याग कर विषयसुख से निराकांक्ष रहने का आदेशात्मक निर्देश किया है। ऐसा इसलिए कि ब्राह्मण द्वारा कर्मकाण्ड की पाखण्डपूर्ण विडम्बना, वैश्यों द्वारा धन के अनावश्यक संचय से ग्राहकों के आर्थिक परिशोषण और स्त्रियों द्वारा विषय-सुख के भोग की अपरिमित आकांक्षाओं के विस्तार की सहज सम्भावना रहती है, जिससे सामाजिक विकास में अवरोध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । अतएव, समाजचिन्तक संघदासगणी ने समाज या राज्य की समुन्नति के लिए अत्यधिक भोग के प्रति निराकांक्षता को अनिवार्य माना है। यहाँ इस महान् कथाकार ने जाति-विषयक कुटिल आक्षेप नहीं किया है, अपितु इसने शास्त्र, धन और काम (धर्म, अर्थ और काम) के प्रतिनिधियों द्वारा अपने अधिकृत सामाजिक विषयों के दुरुपयोग न करने की ओर सही संकेत किया है। इस प्रकार, यह कथास्रष्टा समाज के गुणावगुणों का कुशल परिरक्षक होने के साथ ही एक आदर्श समाज का क्रान्तद्रष्टा परिकल्पक सिद्ध होता है ।