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________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन ३०९ वस्त्र, आभूषण आदि लेकर आये। अन्तःपुर की कलहंसी नाम की प्रतिहारी और राजपरिजनों ने मिल-जुलकर, नगर के द्वार पर वसुदेव को स्नान कराया। वसन-आभूषण से अलंकृत तथा नागरिकों द्वारा प्रशंसित वसुदेव नगर में प्रविष्ट हुए। राजा अशनिवेग ने उन्हें देखा। उन्होंने उसे प्रणाम किया। उसने उठकर 'सुस्वागतम्' कहते हुए उनका सम्मान किया और अपने साथ ही सिंहासन (अर्द्धासन) पर उन्हें बैठाया। उस युग के समाज में अतिथियों के स्वागत के निमित्त अर्घ्य, आसन, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, माल्य, आलेपन, सुभोजन, मुखशुद्धि के लिए ताम्बूल, उत्तम शयन आदि की प्रस्तुति के साथ ही गीत, नृत्य आदि का आयोजन करना सामान्य शिष्टाचार माना जाता था। स्वागत-सत्कार पर विशेष आग्रह उस युग की सांस्कृतिक विशेषता थी। सामान्य गृहस्थ भी स्वागत-सम्मान में पीछे नहीं रहते थे। 'धम्मिल्लहिण्डी' (पृ. ७४) में उल्लिखित कथा से स्पष्ट है कि सुनन्द के माता-पिता के पूर्वपरिचित कुछ प्रिय पाहुन जब उनके घर आये, तब सुनन्द के पिता महाधन नामक गृहपति ने अपने उन पाहुनों को गले लगाया और मधुर भाषणपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया, बैठने को आसन दिया, और फिर वह हाथ-पैर धोने को जल ले आया। इस प्रकार, वे पाहुन उसके यहाँ विश्वस्त भाव से सुखपूर्वक ठहरे। संकट की घड़ी में भी, जब एक मित्र दूसरे मित्र से मिलते थे, तब भी वे परस्पर एक दूसरे का भोजन-पान से सम्मान करते थे। चारुदत्त जब लोहे को सोना बनानेवाले परिव्राजक से पिण्ड छुड़ाकर भागा, तब वह भूख और प्यास से व्याकुल हो उठा और जंगल में काँटों के बीच भटकने लगा। एक जगह चौराहा देखकर वह रुक गया और अनुमान लगाया कि अवश्य ही कोई इस रास्ते से आयगा। तभी देखा कि रुद्रदत्त इधर ही आ रहा है। चारुदत्त को देखते ही वह उसके पैरों पर गिर पड़ा और बोला : “मैं तुम्हारा पड़ोसी रुद्रदत्त हूँ ।” फिर उसने पूछा : “चारुदत्त ! तुम इधर कहाँ से आ गये?" तब चारुदत्त ने रुद्रदत्त से अपना पिछला सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसके बाद रुद्रदत्त ने उसे लोटे से पानी पिलाया और पाथेय भी खिलाया ("ततो दिण्णं करगोदगं तेण, पाहेयं च णेण"; गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४८)। इस कथाप्रसंग से यह भी स्पष्ट है कि उस युग में पानी पीने के बरतनों में लोटे को ही प्रमुखता प्राप्त थी। सोने की गजमुख झारी भी प्रयोग में लाई जाती थी। विमलसेना धम्मिल्ल के स्वागत के लिए सुवर्णनिर्मित गजमुख झारी में ही अर्घ्य लेकर उपस्थित हुई थी : “हत्थे पाए य पक्खालेऊण सुद्धवासाभोगा सोवण्णेणं गयमुहेणं भिंगारेणं अग्धं घेत्तूण निग्गया'; (धम्मिल्लहिण्डी, पृ. ६६)। _ 'वसुदेवहिण्डी' में तत्कालीन समाज की वात्सल्यमयी स्त्रियों का भी आवर्जक चित्रण हुआ है। उनमें सन्तान की कामना सहज भाव से रहती थी। चारुदत्त की माँ भद्रा “उच्चप्रसवा” हो गई थी, अर्थात् उसे पुत्र नहीं प्राप्त होता था, इसलिए वह पुत्रार्थिनी निरन्तर देव-नमस्कार और तपस्विजनों की पूजा में निरत रहती थी (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १३३) । सन्तान-कामना की पूर्ति के निमित्त हरिनैगमेषी देव की आराधना का विधान भी प्रचलित था (पीठिका, पृ. ९७) । कृष्ण ने सत्यभामा से रुक्मिणीपुत्र प्रद्युम्न के समान ही पुत्र की प्राप्ति के लिए हरिनैगमेषी देव की आराधना की थी। माता-पिता अपने पुत्र को गोद में बैठाकर और उसके माथे को सूंघकर अपने वात्सल्य-स्नेह के ..
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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