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________________ २८२ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा महर्षि को देखकर वासव डर गया और उसने बैल का रूप धारण कर लिया। किन्तु, गौतम ऋषि उस बात को जान गये और परस्त्री-गमनदोष के कारण उन्होंने उसे (वासव को) मार डाला। प्रस्तुत कथा ब्राह्मण-परम्परा में प्रसिद्ध गौतम-अहल्या की पौराणिक कथा का जैन रूपान्तर है। इस परम्परा में अहिंसा-सिद्धान्त के विपरीत गौतम ऋषि ने वासव की हत्या कर डाली है, जबकि ब्राह्मण-परम्परा में गौतम ने अहल्या और इन्द्र को अभिशाप दिया था, जिससे इन्द्र का शरीर सहस्रभग (एक हजार योनियों से अंकित, परन्तु शापान्त होने पर सहस्राक्ष : योनियों की जगह एक हजार आँखोंवाला) हो गया था और अहल्या पाषाणी हो गई थी। बहुरूप नट द्वारा प्रस्तुत उक्त नाटक दुःखान्त है। इस प्रसंग में ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्राचीन भारतीय नाटकों में पाश्चात्य नाटकों की भाँति वध, युद्ध, विवाह आदि के प्रदर्शन वर्जित हैं। कथाकार के परवर्ती साहित्याचार्य विश्वनाथ महापात्र ने भी वध, युद्ध, विवाह राज्यविप्लव, मृत्यु, रतिक्रिया आदि दृश्यों को नाटक के प्रदर्शन में निषिद्ध माना है। साथ ही, पूर्ववर्ती आचार्य भरतमुनि ने भी स्पष्ट लिखा है कि “न वधस्तस्य स्याद्यत्र तु नायकः ख्यातः । इसलिए, शास्त्रीय भाषा में दुःखान्त नाटक (ट्रेजेडी : त्रासदी) का जो अर्थ है, उसके अनुरूप किसी भी नाटक का अस्तित्व प्राच्यभाषा, विशेष कर संस्कृत-भाषा में नहीं है। किन्तु, संघदासगणी ने बहुरूप नामक नाटककार के माध्यम से वसुदेव को जो नाटक दिखलवाया है, उसमें रतिक्रीडा और वध को भी प्रदर्शित किया गया है। इसलिए, प्राकृत-कथाकार आचार्य संघदासगणी की यह मूर्तिभंजक या रूढिसमुत्पाटक रूप अद्भुत तो है ही, विचारणीय भी है। इसी प्रकार, वसुदेव जब अपनी भावी विद्याधरी पत्नी प्रभावती के घर में थे, तब उन्हें भोजन कराया गया था। भोजन के ललितकलोचित वर्णन में कथाकार ने कहा है कि भोजनद्रव्य चतुर चित्रकार के चित्रकर्म की भाँति मनोहर था; संगीतशास्त्र ('गंधव्वसमय) के अनुकूल गाये गये गीत के समान उसमें विविध वर्ण थे; बहुश्रुत कवि द्वारा रचित 'प्रकरण' (नाटकभेद) के समान उसमें अनेक रस थे; प्रियजन की सम्मुख दृष्टि की भाँति वह स्निग्ध था; सौषधि के समान एवं विविध गन्धद्रव्यों को मिलाकर तैयार किये गये सुगन्धद्रव्य (गंधजुत्ति = गन्धयुक्ति) की भाँति वह सौरभयुक्त था, साथ ही जिनेन्द्र-वचन के समान हितकारी भी था। भोजन करने के बाद जब वसुदेव शान्त हुए, तब उन्होंने ताम्बूल ग्रहण किया। उसके बाद उन्हें नाटक दिखलाया गया (प्रभावतीलम्भ: पृ. ३५२)। इस कथा-सन्दर्भ से यह ज्ञात होता है कि उस युग में गन्धयुक्ति, ताम्बूल और नाटक का पर्याप्त प्रचार था। मगध-जनपद के अचलग्राम के धरणिजड नामक ब्राह्मण की दासी कपिलिका का पुत्र कपिल नाटक देखने का बड़ा शौकीन था। एक बार वह नाटक (प्रेक्षणक : प्रा पिच्छणय) देखने गया, तभी वर्षा होने लगी और वह भींगता हुआ घर वापस आया (केतुमतीलम्भ : पृ. ३२०)। नाटक के प्रति आकर्षण का एक कारण यह भी है कि वह भिन्नरुचि जनों को एक साथ मनोरंजित करने की क्षमता रखता है। कालिदास ने 'मालविकाग्निमित्र' में कहा भी है : . १. साहित्यदर्पण, ६.१६-१७. २. नाट्यशास्त्र, २०.२२
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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