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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ २७५ “इभ्यपुत्र ! मैं तुम्हें देवविमान (स्वर्गलोक) में ले आई हूँ। मेरे साथ निश्चित भाव से विषयसुख का भोग करो।" अब चारुस्वामी हथिनियों के साथ हाथी की भाँति उन मधुरभाषिणी युवतियों के साथ था। उन्होंने अप्सरा के साथ चारुस्वामी का पणिग्रहण करा दिया। फिर, गीत गाती हुई वे उसे गर्भगृह में ले गईं। वहाँ वह अप्सरा के साथ रतिपरायण होकर सो गया। जब उसका नशा उतरने लगा, तब उसे पता चला कि वह अप्सरा के दिव्यलोक में नहीं, अपितु वसन्ततिलका गणिका के घर में पड़ा है। तभी, वसन्ततिलका ने बड़ी लुभावनी भाषा में चारुस्वामी को अपना परिचय देते हुए कहा : “मैं गणिकापुत्री वसन्ततिलका हूँ। कन्याभाव में रहकर कला की साधना करती हुई समय बिताती हूँ। मुझे धन का लोभ नहीं है। मैं गुण का आदर करती हूँ। मैंने तुम्हें हृदय से वरण किया है। तुम्हारी माँ की अनुमति से तुम्हारे गोमुख आदि मित्रों ने उद्यान में युक्तिपूर्वक तुम्हें मुझे सौंप दिया है।" यह कहकर वह उठी, अपने कपड़े बदले और फिर चारुस्वामी के पास आकर, कृतांजलि होकर निवेदन करने लगी: “इभ्यपुत्र ! मैं तुम्हारी सेविका हूँ। मुझे स्त्री के रूप में स्वीकार करो। ये रेशमी वस्त्र मेरे कन्याभाव के प्रमाण हैं। मैं आजीवन तुम्हारी सेवा करती रहूँगी।” चारुस्वामी ने रागानुबद्ध होकर उसे पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया और वह उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगा। विचक्षणबुद्धि वसन्ततिलका चारुस्वामी को उसकी माता के द्वारा भेजी गई परिभोग्य वस्तुओं को दिखलाने लगी। वसन्ततिलका चूँकि कामकला के शिक्षण में चारुस्वामी की आचार्या थी, इसलिए उसे दक्षिणा में उसकी माँ की ओर से प्रतिदिन एक हजार आठ स्वर्णमुद्राएँ मिलती थीं। फिर, किसी उत्सव के दिन एक लाख आठ हजार स्वर्णमुद्राएँ आती थीं। इस प्रकार, विषयसुख से मोहित होकर चारुस्वामी ने वसन्ततिलका के साथ रमण करते हुए बारह वर्ष बिता दिये । एक दिन मधुपान करके चारुस्वामी जब वसन्ततिलका के साथ सोया था, तभी ठण्डी हवा लगने से उसकी नींद खुल गई। किन्तु, वसन्ततिलका वहाँ नहीं दिखाई पड़ी। उसी क्षण, उसे समझ में आ गया कि गणिका उसे छोड़कर चली गई है। इधर सारा धन नष्ट हो जाने से चारुस्वामी का पिता संन्यासी हो गया और माँ घर बेचकर नैहर अपने भाई सर्वार्थ के पास चली गई (गन्धर्वदत्तालम्भः, पृ. १४३-१४४)। __ प्रस्तुत कथाप्रसंग से गणिकाओं की कई उल्लेखनीय विशेषताएँ सामने आती हैं। सर्वप्रथम गणिकाएँ रतिप्रगल्भा होती हैं । फिर, उनका कन्याभाव कृत्रिम होता है। वे अपनी ललित वचोभंगी में मोहन और वशीकरण की अद्भुत शक्ति रखती हैं। विश्वनाथ महापात्र के अनुसार, वेश्याएँ धीरा और कलाप्रगल्भा होती हैं। ये न तो गुणहीनों से द्वेष करती हैं, न ही गुणियों से अनुराग रखती हैं। ये केवल धन देखकर बाहरी प्रेम प्रदर्शित करती हैं। धन क्षीण हो जाने पर ये स्वीकृत पुरुष को भी अपनी माँ से कहकर निकाल बाहर कराती हैं और फिर नये पुरुषों की खोज में लग जाती हैं। 'वसुदेवहिण्डी' के धम्मिल्ल और चारुस्वामी, वेश्या की इस सहज निर्मम प्रवृत्ति के १. धीरा कलाप्रगल्भा स्याद्वेश्या सामान्यनायिका ॥ निर्गुणानपि न द्वेष्टि न रज्यति गुणिष्वपि । वित्तमात्रं समालोक्य सा रागं दर्शयेद् बहिः ॥ काममङ्गीकृतमपि परिक्षीणधनंनरम् । मात्रा निस्सारयेदेषा पुनः सन्धानकाङ्क्षया ॥-साहित्य दर्पण., ३.६७-६९ ।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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