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________________ २५३ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ सुद्धचारित्तो जाए जाए दिसाए निज्जाइ ततो ततो तरुणिवग्गो तेण समं तक्कम्मो भमति, जा य तरुणीओ ताओ वायायणगवक्खजालंतर दुवारदेसेसु 'नियत्तमाणं पस्सिस्सामो' त्ति पोत्यकम्मजक्खीओ विव दिवसं गमेंति .. " (प्रथम श्यामाविजयालम्भ, पृ. १२०)। इसी प्रकार, श्रेष्ठी कामदेव की पुत्री बन्धुमती के साथ दिव्य शिविका पर सवार होकर अतिशय प्रियदर्शन वसुदेव जब राजकुल की ओर चले, तब रूपविस्मित महल की युवतियाँ पाँच रंग के सुगन्धित फूल और गन्धचूर्ण बरसाने लगी और देखने के लोभ से अन्तःपुर के लोग (स्त्रीजन) वातायनों, गवाक्षों और छज्जों की जालियों पर उमड़ आये : “पासायगयाओ जुवतीओ विम्हिताओ मुयंति कुसुमवरिसं सुरहिपंचवण्णाणि गंधचुण्णाणि य. . . ढब्बलोभेण य अंतेउरजणेण वायायण-गवक्ख-वितड्डियजालंतराणि पूरियाणि" (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २८१) । इस प्रकार, संघदासगणी ने आस्थानमण्डप, अभ्यन्तरोपस्थान, शयनगृह आदि राजप्रासाद के वास्तुविषयक विभिन्न अंगों और उपांगों का उल्लेख किया है। मनुष्यों के वासगृह को भवन और देवों के वासगृह को विमान कहा जाता था। 'स्थानांग' (६.१०७) के अनुसार, विमान की ऊँचाई छह सौ योजन होती थी। संघदासगणी ने यथाप्रसंग भवन और विमान, दोनों ही वास्तुओं का अंकन किया है। प्राचीन वास्तुकारों (वर्द्धकिरत्न) में वास्तुनिर्माण के प्रति सहज आदर रहता था और वे दैवी शक्ति से सम्पन्न होते थे तथा अपनी वास्तुरचना में सहज सुख का अनुभव करते थे। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' (सोमश्रीलम्भ : पृ. ३०९) में लिखा है कि परमगुरु तीर्थंकर ऋषभस्वामी की परिनिर्वाण-भूमि में, प्रथम चक्रवर्ती राजा भरत के आदेश से, दैवी शक्ति से सम्पन्न श्रेष्ठ वास्तुकारों ने सम्पूर्ण आदर के साथ सुखपूर्वक अनेक स्तूपों और जिनायतनों का निर्माण किया था। वह जिनायतन सभी प्रकार के रत्नों से जटित था और वहाँ देव, दानव और विद्याधर आग्रहपूर्वक अर्चना-वन्दना के लिए आते थे। संघदासगणी के अनुसार, प्रासाद के साथ अतिशय दुर्लभ रूप (सुन्दरियाँ) और विषयसुख का नित्यसम्बन्ध है ('दुल्लहतरे व्व रूव-पासाय-विसयसुहसंपगाढे, केतुमतीलम्भ : पृ. ३४०)। संघदासगणी के अनुसार, प्राचीन वास्तुशिल्पी सुरंग खोदने या तलघर बनाने में भी कुशल थे। राजगृह की सप्तपर्णी गुफा की सुरंग भी प्राचीन इतिहास का एक अद्भुत स्थापत्य है । लाक्षागृह से सुरंग खोदकर पाण्डवों के निकल भागने की कथा महाभारत में प्रसिद्ध है। 'वसुदेवहिण्डी' के एक कथा-प्रसंग में उल्लेख है कि दुश्चरित्र पुरोहित को बाँध रखने के लिए पुष्यदेव ने अपने घर में सुरंग (भूमिघर) खुदवाई थी (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. २९६)।लोहे को सोना बनाने के रस की प्राप्ति के लोभ में कुएँ (वज्रकुण्ड) में प्रविष्ट चारुदत्त को छोड़ त्रिदण्डी जब भाग गया था, तब वह (चारुदत्त) उस कुएँ से सम्बद्ध सुरंग के रास्ते, कुएँ में पानी पीने के लिए आनेवाली गोह की पूँछ पकड़कर बाहर निकला था (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४७)। अगडदत्त मुनि की आत्मकथा में भी चर्चा आई है कि प्रच्छन्नचौर त्रिदण्डी के शान्तिगृह के भीतर बने भूमिघर में उसकी बहन रहती थी (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४१) । धार्मिक स्थलों, विशेषकर महन्तों और पण्डों के तथाकथित पूजागृहों में सुरंग या भूमिगृह होने की बात आज भी सत्य है। ये भूमिगृह, खास तौर से छिपकर किये जानेवाले जघन्य अनाचारों के अड्डे (केन्द्र) हुआ करते हैं। आधुनिक काल में भी, भागलपुर (प्राचीन अंग) जिले के काँवरिया बाबा की प्रसिद्ध धर्मशाला के
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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