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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ २४३ गया है: 'वसन्ति प्राणिनो यत्र ।' निवासार्थक वस् धातु के साथ 'तुण्' प्रत्यय के योग से 'वास्तु' शब्द निष्पन्न हुआ है । इस वास्तु का आधार घर या भवन अवश्य है; किन्तु भवन-निर्माण के अतिरिक्त यह कुछ और भी है। एक वास्तुशास्त्री' ने वास्तुकला की ललितकला से तुलना करते हुए बड़ा सटीक कहा है कि कविता केवल पद्य-रचना ही नहीं है, अपितु वह और कुछ है । मधुर स्वर में गाये जाने पर वह और अधिक प्रभावशाली हो जाती है। उसके साथ जब उपयुक्त संगीत और लययुक्त नृत्यचेष्टाएँ भी होती हैं, तब वह केवल मनुष्य के हृदय या इन्द्रियों को ही आकृष्ट नहीं करती, अपितु इनके गौरवपूर्ण मेल से निर्मित सारे वातावरण से उसे अवगत कराती है। इसी प्रकार, वास्तु-कल्पना दार्शनिक गतिविधियों, काव्यमय अभिव्यक्तियों और सम्मिलित लयात्मक, संगीतात्मक एवं वर्णात्मक अर्थों से परिपूर्ण होती है और ऐसी उत्कृष्ट वास्तुकृति मानव के अन्तर्मानस को छूती हुई सभी प्रकार से उसकी प्रशंसा का पात्र बनती है और फिर विश्वव्यापी ख्याति अर्जित करती है, साथ ही भावी पीढ़ियों की प्रेरिका भी होती है । सूचनार्थ निवेदित है कि संघदासगणी के पूर्ववर्ती और परवर्त्ती अनेक वास्तुविदों की वास्तुविद्या-सम्बन्धी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें कतिपय उल्लेख्य हैं: 'गरुडपुराण', 'मत्स्यपुराण', 'अग्निपुराण', 'देवीपुराण', 'युक्तिकल्पतरु', 'वास्तुकुण्डली', विश्वकर्मा द्वारा रचित 'विश्वकर्मप्रकाश' और 'विश्वकर्मीय शिल्पशास्त्र'; मयदानव - कृत 'मयशिल्प' और 'मयमत'; काश्यप और भरद्वाज - कृत 'वास्तुतत्त्व'; वैखानस और सनत्कुमार- प्रोक्त 'वास्तुशास्त्र'; 'मानवसार' या 'मानसारवस्तु', 'हयशीर्षपंचरात्र' आदि पूर्ववर्ती ग्रन्थ, हैं, तो 'समरांगणसूत्रधार' (भोजदेव), 'वास्तुसार' या 'राजवल्लभमण्डन' (सूत्रधारमण्डन), ‘वास्तुशिरोमणि' (महाराज श्याम शाह शंकर), 'वास्तुचन्द्रिका' (करुणाशंकर और कृपाराम), 'वास्तुपुरुषविधि' (नारायाणभट्ट), 'वास्तुपूजनपद्धति', 'शाकलीय वास्तुपूजाविधि' (याज्ञिकदेव), 'वास्तुप्रदीप' (वासुदेव), आश्वलायनगृह्येोक्त 'वास्तुशान्ति', शौनकोक्त ‘वास्तुशान्तिप्रयोग’ (रामकृष्णभट्ट), 'वास्तुशान्ति' (दिनकरभट्ट), 'वास्तुयागतत्त्व' (स्मार्त रघुनन्दन), 'टोडरानन्द' या 'वास्तुसौख्य' (टोडरमल) आदि परवर्ती हैं। कौटिल्य के युग में वास्तुविज्ञान प्रसिद्धि की चरम शिखर पर था । उन्होंने अपने अर्थशास्त्र के इक्कीसवें अध्याय में कुशल वास्तुवैज्ञानिकों का सादर उल्लेख किया है, साथ ही वास्तुविधि समस्त उपकरणों की विशद चर्चा की है। ग्राम समुदायों और नगरों की रचना विशेषत: दुर्ग-निर्माण की रूपरेखाओं का स्पष्ट अंकन इस ग्रन्थ में हुआ है। कौटिल्य ने वास्तु-परिमाण की प्राचीन मान्यता में विकास करके यह नियम बनाया था कि गृह-निर्माण के लिए भूमि - अंशों का विभाजन एवं वितरण निर्माताओं की वृत्ति के अनुरूप होना चाहिए। आधुनिक काल के वास्तुओं का निर्माण परम्पराधृत न होकर निर्माताओं की रुचि और प्रवृत्ति के अनुसार ही हुआ करता है । २ संघदासगणी द्वारा 'वसुदेवहिण्डी' में चित्रित वास्तुप्रकरण से यह सहज अनुमेय है कि ‘औपपातिकसूत्र’ आदि जैनागमों के अतिरिक्त ब्राह्मणों के वैदिक तथा पौराणिक ग्रन्थ एवं मयदानव तथा विश्वकर्मा के प्राचीनतर वास्तुशास्त्र, कौटिल्य का अर्थशास्त्र आदि उस बहुश्रुत कथाकार के आधारादर्श रहे होंगे । १. हिन्दी - विश्वकोश, खण्ड १०, काशी - नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, पृ. ४४८ २. विशेष विवरण के लिए द्र. 'स्वतन्त्र कलाशास्त्र' : डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय, चौखम्बा प्रकाशन, सन् १९६७ ई., पृ. ५९३ से ६२५
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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