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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ २३१ भूमिभाग पर आ डटा। वह घोड़े पर सवार था। अगडदत्त ने अपने रथ को अर्जुन के सामने ला भिड़ाया। दोनों परस्पर बाणों का प्रहार करते हुए जूझने लगे। तब, अगडदत्त ने सोचा कि सामान्य विधि से अर्जुन को जीतना सम्भव नहीं है; क्योंकि अर्जुन भी रथयुद्ध में बड़ा कुशल था। उसके बाद अगडदत्त को 'अस्त्रशास्त्र' में कही गई विशिष्ट विधि का स्मरण हो आया : “विसेसेण मायाए सत्येण य हंतव्वो अप्पणो विवड्डमाणो सत्तु' ति; (तत्रैव : पृ. ४५)। अर्थात्, जब शत्रु अधिक बलशाली प्रतीत हो, तब वैसी स्थिति में विशेष प्रकार की माया (छल) के प्रयोगपूर्वक शस्त्र से उसका विनाश करना चाहिए। 'अस्त्रशास्त्र' के इसी सिद्धान्त के अनुसार, अगडदत्त ने सर्वालंकार-विभूषित श्यामदत्ता से अधोवस्त्र को ढीला करके रथ के अगले हिस्से पर बैठने को कहा। वह चोर सेनापति श्यामदत्ता के रूपयौवन के विलास से विस्मित हो गया और एकटक उसे ही देखता रह गया। अगडदत्त ने चोर-सेनापति को असावधान देखकर नीलोत्पलसदृश आरामुख (वृद्धशार्गध-प्रोक्त बाण-विशेष) से उसके स्तनप्रदेश (छाती) पर प्रहार किया। उसके बाद वह (अर्जुन) घोड़े से उतरकर “मैं युद्ध में स्त्रीमुख देखते रहने से, काम के बाण से मारा गया" कहते हुए मर गया। अपने सेनापति को मरा हुआ देखकर शेष सभी चोर भाग गये। इस प्रसंग से यह स्पष्ट है कि पुराकाल के धनुर्धर अस्त्रयुद्ध में छल से भी अपने अतिशय बली प्रतिपक्षियों को विनष्ट कर डालते थे। संघदासगणी द्वारा निर्दिष्ट यह छलयुद्ध भी अपने-आपमें अद्भुत और विस्मयकारी है, साथ ही अगडदत्त की अलोकसामान्य प्रत्युत्पन्नमतियुक्त युद्धचातुरी की ओर भी संकेत करता है। इसके अतिरिक्त, इससे कथाकार संघदासगणी की अपूर्व कल्पना की परा काष्ठा भी सूचित होती है। नवम अश्वसेनालम्भ में भी संघदासगणी ने युद्धास्त्रों के वर्णन के क्रम में तीक्ष्ण खड्ग और शक्ति के साथ ही कुन्त (भाले) और नाराच (सम्पूर्ण लौहमय बाण) का भी उल्लेख किया है। पुनः चौदहवें मदनवेगालम्भ में तामस अस्त्र की चर्चा आई है। कथा है कि त्रिशेखर और दण्डवेग जब एक दूसरे पर बाणों की वर्षा करते हुए परस्पर जूझने लगे, तब त्रिशेखर ने तामस अस्त्र का निक्षेप किया, फलतः चारों ओर अन्धकार छा गया। मायावी त्रिशेखर, अपने अस्त्रों के छिन्न-भिन्न हो जाने पर कुपित हो उठा और जिस प्रकार मेघ पर्वत को ढक लेता है, उसी प्रकार बाणों की वर्षा करता हुआ वह आया और गरज उठा : “ओ वीर ! सम्प्रति अपनी रक्षा करो।" तब, दण्डवेग ने भी अस्त्रचालन की कुशलता का प्रदर्शन प्रारम्भ किया। अन्तरिक्ष में इन्द्रधनुष के उगने से जैसे वर्षा रुक जाती है, वैसे ही दण्डवेग ने अपने रश्मिरंजित बाणों से त्रिशेखर की बाणवर्षा को व्यर्थ कर दिया। तब, त्रिशेखर ने दण्डवेग के वध के लिए स्वर्णखचित 'स्वस्तिक बाण' का निक्षेप किया। इस प्रकार, उसके द्वारा फेंके गये अस्त्रों को दण्डवेग रोकता रहा। फिरं, दण्डवेग ने अपने अमोघ अस्त्रों से त्रिशेखर के मर्मदेश में प्रहार किया। फलतः, वह छिन्नरज्जु इन्द्रध्वज की भाँति अचेत होकर धरती पर गिर पड़ा (पृ. २४६)। सत्रहवें बन्धुमतीलम्भ में भी राजा जितशत्रु के मन्त्री द्वारा उपदिष्ट नरक के वर्णन के क्रम में संघदासगणी ने अनेक शस्त्रास्त्रों का उल्लेख किया है । अवधिज्ञान के कारण पूर्वजन्म के वैरानुबन्ध का स्मरण हो आने से नरकवासी एक दूसरे को देखकर भाला, लाठी, गुलेल, तीर, मूसल आदि
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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