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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ २०९ कालमृत्यु के पक्षधरों ने इस श्लोक का अर्थ किया है: “व्याधि के तत्त्व का परिज्ञान और वेदना का निग्रह, यही वैद्य का वैद्यत्व है। वैद्य आयुर्बल का प्रभु नहीं होता।" किन्तु, अकाल-मृत्युवादियों ने 'न' शब्द को देहली-दीपकन्यायऐ अन्वयित्त कर इसका अर्थ इस प्रकार लगाया है: “व्याधि का तत्त्व-परिज्ञान और वेदना का निग्रह, यही वैद्य का वैद्यत्व नहीं है, अपितु वैद्य आयु का भी प्रभु है।" ___ इसीलिए, आयुर्वेदशास्त्र के रोगनिदान में यह उक्ति प्रसिद्ध है कि जो वैद्य सन्निपातज्वर की चिकित्सा करता है, वह मानों मृत्यु से युद्ध करता है: ('मृत्युना सह योद्धव्यं सन्निपातं चिकित्सता)। इस विवेचन से स्पष्ट है कि अकालमृत्यु अथवा आगन्तुक या अपमृत्यु की स्थिति सुनिश्चित है। और, संघदासगणी द्वारा चर्चित 'संजीवनी' या बुधस्वामी-प्रोक्त 'मृतसंजीवनी' ओषधि या ओषधि अकालमृत्यु या अपमृत्यु से बचानेवाली होगी, इसलिए उसकी वह संज्ञा सार्थक है । और, ऐसी स्थिति में यह अनुमान असहज नहीं कि उस समय अपमृत्यु से बचानेवाली प्रत्येक ओषधि 'संजीवनी' संज्ञा से उद्धृष्ट होती रही हो । संघदासगणी ने और भी दो-एक प्रसंगों में अकालमृत्यु से बचने की घटना का उल्लेख किया है। अगडदत्त की प्रेयसी श्यामदत्ता को नगरोद्यान में जब काकोदर सर्प ने काट खाया था, तब वह विष के आवेग से क्षणभर में ही अचेत हो गई थी और रोता-कलपता अगडदत्त ने उसे देवकुल के द्वार पर ले जाकर डाल दिया था। तब आधी रात के समय दो विद्याधर उसके पास आये और उन्होंने श्यामदत्ता की हालत सुनकर उसे अपने हाथों से छू दिया और वह उठकर खड़ी हो गई (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४६) । ज्योतिर्वन में कुक्कुट सर्प के काट खाने से रानी सुतारा की भी अकालमृत्यु हो गई थी, जिससे वह पुनः जीवित हो गई ( केतुमतीलम्भ : पृ. ३१६) । 'वसुदेवहिण्डी' की मान्यता के अनुसार, ऋषभस्वामी के समय से अकालमृत्यु होने लगी थी। कथा है कि मिथुन सृष्टि के समय जन्म लेत ही बड़की और बड़के को तालवृक्ष के नीचे रख दिया गया। तालफल के गिरने से बड़का मर गया और तभी से अकालाप्त्यु प्रारम्भ हुई। इसके पूर्व कालमृत्यु ही होती थी (नीलयशालम्भ, पृ. १६१)। कहना न होगा कि अकालमृत्यु से रक्षा के लिए ही 'संजीवनी' ओषधि का आविष्कार विद्याधरों ने किया होगा। जैनमान्यता के अनुसार, प्राय: विद्याधर और श्रमण मुनि भी उस समय चिकित्सक की भूमिका का निर्वाह किया करते थे। अस्तु; अमितगति विद्याधर के प्रसंग में, संघदासगणी ने उल्लेख किया है कि विद्याधर के शत्रु ने उसके मर्मस्थलों को छोड़कर कीलें ठोकी थी, इसलिए उसका मुख विवर्ण नहीं हुआ था। सुश्रुत के अनुसार, सिरा आदि मर्मस्थल के बिंधने पर व्रणी के स्पर्शज्ञान की शक्ति नष्ट हो जाती है और उसका रंग पीला पड़ जाता है। कहना न होगा कि संघदासगणी ने सुश्रुत की आयुर्वेदिक विधि के अनुसार ही अपने शल्यविषयक सिद्धान्त का उल्लेख किया है। संघदासगणी ने जिह्वातन्तु की शल्यक्रिया करके तोतलेपन की चिकित्सा का उल्लेख किया है। सुनन्दा ब्राह्मणी के पुत्रों में एक, मेधावी तो था, लेकिन तोतला था। इसलिए, वसुदेव की पत्नी मित्रश्री ने उनसे अनुरोध किया कि सुनन्दा ब्राह्मणी का पुत्र वेद पढ़ने में असमर्थ है, १.लिङ्गानि मर्मस्वभिताडितेषु स्पर्श न जानाति विपाण्डुवर्णो । – सूत्रस्थान, अ. २५, श्लो. ४०
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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