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________________ १९८ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा धमकाया और डराया भी। तब अंशुमान् ने मेरे अस्वस्थ होने की सूचना राजा को दी। राजा तुरन्त मेरे पास पहुँचा। प्रतिहारी ने राजा के आने की सूचना दी। राजा (पुरुष-वेश में स्त्री) मेरे बिछावन के निकट ही अपने आसन पर बैठा। उसने अपने कमल-कोमल परम सुकुमार हाथों से मेरे सिर, ललाट और वक्षःस्थल का स्पर्श किया और फिर वह बोला : “शरीर गरम तो नहीं है। निर्दोष भोजन ले सकते हैं। यह कहकर राजा ने नन्द-सुनन्द को आदेश दिया : ‘भोजन ले आओ, समय पर किया गया भोजन आरोग्यदायक होता है'।" . इस कथांश में आयुर्वेद का एक और सिद्धान्तसूत्र निहित है : “ज्वरी व्यक्ति का शरीर गरम न रहे, तो वह निर्दोष भोजन ले सकता है” (“ण म्हे उम्हा सरीरस्स, निहोस भोत्तव्वं भोयणं ति"; पृ. २१३)। 'सुश्रुतसंहिता' में भी कहा गया है कि ज्वरी व्यक्ति को, ज्वरवेग के शान्त होने पर अतिशय लघु भोजन मात्रानुसार देना चाहिए, अन्यथा वह ज्वरवेग को बढ़ा देता है : सर्वज्वरेषु सुलघु मात्रावद्भोजनं हितम् । वेगापायेऽन्यथा तद्धि ज्वरवेगाभिवर्द्धनम् ।। (उत्तरतन्त्र : ३९.१४५-१४६) किन्तु इस कथा-प्रसंग से यह बात भी स्पष्ट होती है कि चरक और सुश्रुत के समय में यथाप्रथित भूतचिकित्सा की विधि का संघदासगणी के समय में, शिक्षित-समुदाय के बीच अवमूल्यन हो चुका था, तभी तो वसुदेव ने भूतचिकित्सकों से बातचीत करते हुए अंशुमान् को न केवल डाँटा, अपितु डराया और धमकाया भी। यद्यपि, राजकुल में भूतचिकित्सा की प्रथा साग्रह प्रचलित थी। केतुमतीलम्भ में कथा है कि वसन्तपुर के राजा जितशत्रु की पत्नी इन्द्रसेना, जो मगधराज जरासन्ध की पुत्री थी, जब शूरसेन नामक परिव्राजक के वशीकरण में पड़ गई, तब राजा ने उस परिव्राजक का वध करवा दिया। रानी परिव्राजक के वियोग में आकुल रहने लगी और उसी स्थिति में पिशाच से आविष्ट हो गई। भूताभिषंग के विशेषज्ञ चिकित्सक बन्धन, रुन्धन, यज्ञ, धूनी द्वारा अवपीडन, ओषधि-पान आदि क्रियाओं से भी प्रकृतिस्थ नहीं कर सके । अन्त में, जरासन्ध के कहने पर जितशत्रु ने रानी इन्द्रसेना को आश्रम में रखवा दिया, जहाँ वह वसुदेव द्वारा की गई चिकित्सा से पिशाचमुक्त हो गई (पृ. ३४८-३४९) । इस कथा-प्रसंग से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि जो वसुदेव अपने प्रति भूत-चिकित्सा के लिए अंशुमान् द्वारा किये गये आयोजन पर उसे डाँटते, डराते और धमकाते हैं, वही वह स्वयं भूतविद्या के न केवल विशेषज्ञ हैं, अपितु पिशाचाविष्ट रानी को अपनी चिकित्सा से प्रकृतिस्थ भी कर देते हैं। किन्तु वसुदेव के चरित में दो विरोधी आयामों के विन्यास का गूढार्थ, पूरे कथा-प्रसंग को देखने से, स्पष्ट हो जाता है। वसुदेव भूतविद्या के ज्ञाता होते हुए भी उसे जल्दी प्रयोग में नहीं लाना चाहते थे और वह स्वयं वस्तुतः भूताविष्ट तो हुए नहीं थे, अपितु कामदशा की स्थिति-विशेष (अरति) में पहुँचे हुए थे, इसीलिए उन्होंने गलत निदान करनेवाले अंशुमान् को डाँटा और डराया-धमकाया। और फिर, उन्होंने जो भूतचिकित्सा की, वह उनकी सदाचारमूलक विवशता थी। आश्रम में तापसों ने रानी इन्द्रसेना के कष्ट को देखकर उनसे आग्रह किया था : “आप तो बड़े १. 'माधवनिदान के अनुसार, भूतभिषंगज्वर से बी मनुष्य आक्रान्त होते हैं। हास्य, रोदन, कम्पन आदि इसके लक्षण हैं। अंगरेजी में इसे 'फीवर ऑफ इविल स्प्रिट्स' कहते हैं।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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