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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा
सही निदान और तदनुकूल ओषधि का प्रयोग एवं ओषधि के निर्माण का ज्ञान ही आयुर्वेदिक चिकित्सा-पद्धति की अपनी विशेषता है, जो उसे एलोपैथी से विशिष्टतर बनाती है ।
आयुर्वेद में, रोग के निदान के लिए माधवाचार्य-प्रणीत 'माधवनिदान' सर्वश्रेष्ठ माना जाता है और द्रव्यों (जड़ी-बूटियों) के रस-गुण-वीर्य-विपाक आदि के अतिरिक्त उनकी उत्पत्ति, नाम, लक्षण, प्रयोग विधि का वैविध्य, गुण, सेवन के योग्यायोग्य पात्र एवं मनुष्य की सृष्टि और उसकी शारीरिक संरचना (शरीर-संस्थान) आदि अनेक तथ्यों की जानकारी के लिए भावमिश्र- कृत 'भावप्रकाश' का पूर्वखण्ड' एकमात्र आधिकारिक ग्रन्थ है, हालाँकि भावमिश्र का यह मूल्यवान् प्रकरण 'चरकसंहिता' और 'सुश्रुतसंहिता' पर आधृत है। चिकित्सा - विधि की दृष्टि से चरक, सुश्रुत और वाग्भट का उल्लेखनीय स्थान तो है ही, तत्परवर्ती 'भावप्रकाश' के उत्तरखण्ड में पूर्वपरम्परागत रोगचिकित्सा की ततोऽधिक विशद और विकसित प्रणाली का सम्यग्दर्शन होता है। इसके अतिरिक्त, काष्ठौषधियों (जड़ी-बूटियों) से बननेवाली दवाओं के नुस्खे के खयाल से 'शांर्गधरसंहिता' और ‘भैषज्यरत्नावली' ये दोनों पार्यन्तिक कृतियाँ मानी जाती हैं फिर रस-रसायन के निर्माण की दृष्टि से 'रसेन्द्रसारसंग्रह', 'रसतरंगिणी', 'रसरत्नसमुच्चय', 'रसार्णव' आदि ग्रन्थ पांक्तेय हैं । 'वसुदेवहिण्डी' में यथोपन्यस्त आयुर्वेदिक चिकित्साधिकार के उक्त तीनों आयामों का विनिवेश हुआ है।
चिकित्सा-कर्म में आयु की परीक्षा सर्वोपरि होती है। इसलिए, 'सुश्रुतसंहिता' में वैद्यों को आदेश दिया गया है कि वे प्रयत्नपूर्वक रोगी की आयु की परीक्षा करें। रोगी के दीर्घायु होने पर ही चिकित्सा सफल होती है। इसलिए, चिकित्सा-कर्म में आयु की परीक्षा की परोक्ष चर्चा संघदासगणी ने भी की है । 'वसुदेवहिण्डी' के तृतीय गन्धर्वदत्तालम्भ में उल्लेख है कि वसुदेव जब चारुदत्त की संगीत-सभा में पहुँचे, तब उन्होंने सभा की भित्ति पर अंकित हस्तियुगल को अल्पायु बताया। तब सेठ ने उनसे पूछा : “क्या चित्रकर्म में भी आयु की परीक्षा होती है ?” (सामी ! किं चित्तकम्मे वि आउपरिक्खा अस्थि पृ. १२८ ) ? यहाँ 'अपि' शब्द के प्रयोग से यह व्यंजित होता है कि चिकित्साशास्त्र में आयु की परीक्षा तो है ही, चित्रकर्म में भी आयु की परीक्षा है, यही सेठ चारुदत्त के विस्मय का कारण है ।
रोगी के दीर्घायु होने के अनेक प्रकार के लक्षण आयुर्वेद-ग्रन्थों में कहे गये हैं। 'भावप्रकाश' में उल्लेख है कि जो रोगी स्वाद और गन्ध को जानता है, वह दीर्घायु होता है। स्वाद और गन्ध जानने के कारण ही अमितगति विद्याधर ने अपने कपड़े और वस्त्र में गन्ध (इ) का प्रयोग किया था और उसी आधार पर चारुदत्त सेठ के साथी गोमुख ने विद्याधर के केश और वस्त्रों सूँघकर उसके दीर्घायु होने की कल्पना की थी (इमे केसवत्थत्याइणो गंधा दीहाउणो समुप्पण्णस्स पृ. १३८) ।
भोजन- प्रकरण :
आयुर्वेद में दिनचर्या का बड़ा महत्त्व है। दिनचर्या में भी भोजनविधि सर्वप्रमुख है। इसीलिए, 'अष्टांगहृदय' (वांग्भट) और 'भावप्रकाश' में भोजनविधि पर विशेष प्रकाश डाला गया है। तदनुसार,
१. " आतुरमुपक्रममाणेन भिषजाऽऽयुरादावेव परीक्षितव्यम् । ” - सूत्र, ३५ १३ ।