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________________ १४६ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा संघदासगणी ने संकीर्ण या मिश्रकथा में प्राप्य अनुभूतियों की पूर्ण अभिव्यक्ति की क्षमता को लक्ष्य किया था, क्योंकि मिश्रकथा या संकीर्ण कथा में धर्म, अर्थ और काम, इन तीनों पुरुषार्थों का एक साथ निरूपण सम्भव है। दशवैकालिक की हारिभद्रवृत्ति में संकीर्ण कथा को ही मिश्रकथा कहा गया है। जिस कथा में किसी एक पुरुषार्थ की प्रमुखता नहीं हो, वरन् तीनों ही पुरुषार्थों तथा सभी रसों और भावों का मिश्रित रूप पाया जाय, वह कथाविधा मिश्रा या संकीर्णा है । कथातत्त्वों के मिश्रण एवं संकीर्णता से संवलित प्रकीर्णकथाओं में मूलकथा के केवल सूत्र ही नहीं रहते, अपितु कथ्यवस्तु, कथानक, पात्र, देश, काल, परिस्थिति आदि प्रमुख कथातत्त्वों के बीज या संकेत भी वर्तमान रहते हैं। 'मिश्रकथा' अपने-आपमें इतना व्यापक शब्द है कि इसमें सभी प्रकार की कथा-विधाओं या तदनुरूप कथातत्त्वों का मिश्रण उपलब्ध होता है । इसीलिए, इसमें मूलकथा से अनुबद्ध मनोरंजन और कुतूहल के साथ-साथ जन्म-जन्मान्तरों के कथानकों, कथारूढियों और मिथकों की जटिलता बड़े आकर्षक और मोहक ढंग से अनुस्यूत रहती है । फलत, राजाओं या वीरों के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, दान, शील, वैराग्य और समुद्री यात्राएँ; मुनियों या विद्याधरों के आकाशगमन; अगम्य पार्वत्य या जांगल प्रदेशों के प्राणियों के अस्तित्व; विभिन्न विस्मयकारी द्वीप-द्वीपान्तरों, संगीतशास्त्र-छूतसभाओं आदि की विशिष्टताओं एवं स्वर्ग-नरक, देव-दानव के विस्तृत वर्णन, साथ ही क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि कषायों के दुष्परिणाम एवं इन मनोविकारों के सामाजिक धरातल पर मनोवैज्ञानिक चित्रण प्रभृति सभी कथावस्तुएँ मिश्रकथा में अन्तर्निहित रहती हैं। विविध तत्त्वों की मिश्रता के कारण ही कथानक में संकीर्णता आती है और कथानक की यह संकीर्णता प्रकीर्ण कथाओं के माध्यम से मूलकथा को आच्छादित किये रहती है। प्रकीर्ण कथाओं में मूलकथा की प्रासंगिकता और विशुद्ध कथातत्त्व के अतिरिक्त पुरुषार्थचतुष्टय, नीति, प्रेम, राजनीति, समाजनीति, लोकतत्त्व एवं विभिन्न मनोव्यापारों आदि का भी मनोरम वर्णन रहता है। इसलिए, प्रकीर्ण कथाएँ प्राय: दृष्टान्तप्रधान होती हैं। महाकथा के रचयिता अपनी महाकथा से पार पाने के लिए प्रकीर्ण कथाओं से सेतु का काम लेते हैं। साथ ही, उन्हें अपने मत की अभिव्यक्ति या परमत से उसके समन्वय, सम्यक्त्व की पुष्टि के लिए मिथ्यात्व का निदर्शन या मिथ्यात्व की सम्पुष्टि के लिए सम्यक्त्व की अवहेलना या विखण्डन, दृष्टान्त-प्रदर्शन आदि रचना की प्रक्रियाओं में प्रकीर्ण कथाएँ बड़ी सहायता करती हैं, साथ ही अपने मत की स्थापना का उपयुक्त अवकाश भी वह प्राप्त कर लेते हैं। अतएव, शास्त्रीय दृष्टि से प्रकीर्ण कथा को उद्योतनसरि और जिनसेन द्वारा प्रोक्त आक्षेपिणी कथा के साँचे में रखा जा सकता है। प्रकीर्ण कथाओं के आक्षेप या प्रक्षेप से ही मूलकथा के महदनुष्ठान की पूर्णाहुति होती है। यद्यपि, प्रकीर्ण कथाओं में दशवैकालिक-प्रोक्त धर्मकथा की आक्षेपिणी, १. धम्मो अत्यो कामो उवइस्सइ जत्त सुत्तकव्वेसुं। लोगे वेए समये सा उ कहा मीसिया णाम ।। -दशवैकालिक, गाथा २६६ २. सा पुनः कथा मिश्रा नाम सङ्कीर्णपुरुषाभिधानात् । दश. हारि, पृ. २२८ ३.विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य ‘हरिभद्र के प्राकृत-कथासाहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन' : डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, पृ.११३ ४.(क) तत्थ अक्खेवणी मनोनुकूला।- उद्योतनसूरि : 'कुवलयमाला', अ.९, पृ.४ (ख) आक्षेपिणी-कथां कुर्यात्प्राज्ञः स्वमतसङ्ग्रहे। जिनसेन : महापुराण, प्र. प, श्लो. १३५
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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