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________________ वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ १३३ उनके अनुसार मिथक मानव-जाति के सामूहिक स्वप्न एवं सामूहिक अनुभव हैं। ये अवचेतन की उपज और तर्कपूर्व (प्रि-लॉजिकल) चिन्तन के रूप हैं। मिथक की यथार्थता पुनीत होती है और यह पुनीत यथार्थता सत्य भी होती है । इस दृष्टि से मिथक आस्था पर आश्रित एक हठात् विश्वास (मेक-बिलीफ) है। मिथक के पात्र और घटनाएँ, काल और देश सभी पुनीत होते हैं । अतएव, मिथकीय चेतना ऐतिहासिक चेतना को तो विस्मृत कराती है, लेकिन अपने स्वभाव एवं सौन्दर्यबोधात्मक कारणों से हमारी आत्मचेतना को जगाती है। मिथक कथा मनुष्य में आदिम सरलीकृत प्रतिबोध जागरित करती है, अर्थात् स्वप्न के सीमान्तों में ले जाकर मनुष्य की आदिम जागरूकता को उन्मिषित करती है। फ्रॉयड का सन्दर्भ उपस्थित करते हुए डॉ. रमेश कुन्तलमेघ ने कहा है कि फ्रॉयड के मत से मिथक - निर्मिति और स्वप्न - निर्मिति एक जैसी है । मिथकों के बहिर्वृत्त में प्रतीकार्थ का रहस्यात्मक अवगुण्ठन पड़ा होता है, जिसको मनोवैज्ञानिक सघनीकरण, स्थानान्तरण, विपरीतों में रूपान्तरण आदि की विधियों द्वारा खोला जा सकता है । कुल मिलाकर, मिथक-कथाएँ 'पुनीत संस्कृति' की आधारभूमि हैं । ' मिथकों में सबसे अधिक प्रचलित परियों या विद्याधरियों की कथाएँ हैं । फ्रॉयडवादी मनोविश्लेषक रिकलिन ने मिथक एवं परीकथा के अभिप्रायों का विशिष्ट अध्ययन किया है । इनकी आधारभूमि यथार्थ दुनिया नहीं होती, बल्कि ये शैशव फान्तासियों को जादू की डोरों से बुनती हैं। डॉ. रमेश कुन्तलमेघ' ने कहा है कि परीकथाओं में मिथकीय काल एवं देश की निर्विकल्प चेतना उपस्थित रहती है । अर्थात्, इनमें एक समय, एक स्थान ओर एक राजकुमार या कोई सुन्दर राजकुमारी या कहीं की परी केन्द्र में होती है। इनमें अतिप्राकृतिक जादुई सम्मोहन और मानवीय भोलेपन की कान्त मैत्री होती है। इनमें कम-से-कम एक पात्र परी अवश्य होती है। और बहुधा एक राक्षस या खलनायक या प्रतिनायक या प्रतिद्वन्द्वी भी होता है, जो क्रमशः मानवीय स्वप्नों एवं आकांक्षाओं तथा भयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें मानवीय पात्र पशु या पक्षी में रूपान्तरित होकर 'इदम्' की दमित इच्छाओं का उदात्तीकरण करते हैं । इनका केन्द्रीय भावबोध कुतूहल है, तथा इनका अन्त बराबर सुखान्त होता है । संघदासगणी ने मिथक कथा के रूप में परी या अप्सरा की जगह विद्याधरियों की कथाओं का आकलन बड़े रोमाण्टिक ढंग से किया है। चौदहवें मदनवेगालम्भ (पृ. २२९) की कथा है : एक दिन वसुदेव सम्भोग-सुख के आस्वाद की थकावट के कारण सोये हुए थे कि एकाएक शरीर ठण्डी हवा लगने से जग पड़े और अनुभव किया कि उन्हें कोई हरकर आकाशमार्ग से ले जा रहा है। वह कुछ चिन्तित हो रहे थे कि तभी सामने एक पुरुष दिखाई पड़ा। गौर से देखने पर पता चला कि वह उनका प्रतिद्वन्द्वी, उनकी ही प्रेयसी वेगवती का भाई, मानसवेग है। उनके मन में धारणा बँधी कि दुरात्मा मानसवेग उन्हें मार डालने के लिए कहीं ले जा रहा है। बस, मरने और मारने की भावना में आकर उन्होंने उसपर मुक्के से जोरदार प्रहार किया । उसके बाद वह मानसवेग अदृश्य हो गया । वह भी निराधार होकर गंगा नदी के जल की सतह पर गिर पड़े। इस मिथक-कथा के केन्द्र में वेगवती नाम की विद्याधरी है। चूँकि, वसुदेव ने मानसवेग की इच्छा के विरुद्ध वेगवती को स्वायत्त कर लिया था, इसलिए वह उनका प्रतिद्वन्द्वी बन गया था । १. ' परिषद्-पत्रिका', जनवरी १९७८ ई. (वर्ष १७ : अंक ४), पृ. ९५ २. उपरिवत्, पृ. ९५
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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