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________________ द्विसन्धान-महाकाव्य का सन्धानात्मक शिल्प-विधान साहित्य के इतिहास पर यदि दृष्टिपात किया जाये तो, यह स्पष्ट हो जाता है कि कालिदासीय भाव-प्रधान काव्य-शैली के स्थान पर 'अर्थ-गौरव' को स्थानान्तरित करने वाले काव्यकारों में भारवि का नाम सर्वप्रथम आता है । अर्थगौरव के लिये स्थापित इस कलापक्ष के माध्यम से संस्कृत काव्य-साहित्य परवर्ती काल में शाब्दिक चमत्कृति, विविध छन्दप्रयोग, अलंकार-विन्यास तथा पाण्डित्य -प्रदर्शन का क्षेत्र-मात्र बनकर रह गया है। महाकवि माघ द्वारा प्रयुक्त कृत्रिम चित्रालंकार यमक उक्त तथ्य की पुष्टि करते हैं । स्वाभाविकता तथा सारल्य को तिरष्कृत करते हुए यमक काव्य को दुरूह व आडम्बरपूर्ण बना देते हैं । 'प्रत्यक्षरश्लेषमयी', 'बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम्' तथा 'नैषधं विद्वदौषधम्' आदि उक्तियाँ यह सिद्ध करती हैं कि इस प्रकार के काव्य-विकास में सुबन्धु, बाण तथा श्रीहर्ष का योगदान भी कम नहीं है। कोई भी परम्परा विश्व में ऐसी नहीं है, जो एक-न-एक दिन अपनी चरमावस्था पर न पहँच गयी हो । यमक काव्य से प्रारम्भ होकर आडम्बरपूर्ण काव्य परम्परा अपने चरमोत्कर्ष पर पहँचकर ऐसे काव्यों पर समाप्त हई, जिनको पढ़ना बच्चों का खेल न होकर, विदग्ध काव्य रसिक के लिये दुःसाध्य हो गया । अन्ततः कोश या टीकाओं का अवलम्बन लेना आवश्यक हो गया। इस परम्परा में सन्धानकाव्य विधा का विकास हुआ और व्यर्थक, व्यर्थक, चतुरर्थक, सप्तार्थक आदि काव्यों की कालान्तर में रचना हुई। सन्धान-काव्य में दो कथाएं किस प्रकार प्रस्तुत की जाती हैं, इस विषय पर विभिन्न संस्कृत मनीषियों ने समय-समय पर अपने मन्तव्य प्रस्तुत किये हैं। डॉ. ए.बी. कीथ के मत में, “यह अद्भुत कार्य आपातत: अविश्वसनीय प्रतीत होता है, तो भी संस्कृत भाषा के स्वभाव को देखने से इसकी व्याख्या विशेष कठिनता के बिना हो जाती है, पद्य की प्रत्येक पंक्ति को एक इकाई मानकर उसका बिल्कुल विभिन्न रूप से अक्षरसमूहात्मक शब्दों में परस्पर विश्लेषण किया जा सकता है, साथ ही समासों के अर्थ पर भी तदन्तर्गत शब्दों के परस्पर सम्बन्धों को जिस रूप से समझा जाता है, उसका बड़ा गहरा प्रभाव होता है, चाहे शब्दों को एक अर्थ में लिया जाये । इसके अतिरिक्त यह बात विशेष महत्व रखती है कि संस्कृत के शब्दकोश एक शब्द के अनेक प्रकार के अर्थ देते हैं, उनमें हमें बड़े विचित्र शब्दों की एक बड़ी संख्या मिलती है, अपने विशेष रूप के कारण वे शब्द इस अभिप्राय
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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