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________________ १९८ सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य चेतना इन दोनों ने उनके रथ के घोड़ों की जोड़ी पर रखे जुओं को भी इस प्रकार काटकर फेंक दिया था, जिस प्रकार भीषण अहंकार और प्रगाढ़ लोभ अनीति - मार्ग का आचरण कराकर ध्यान-आसन आदि तपस्या के फल को नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार यहाँ ध्वजाओं की बाहुओं के रूप में तथा जुआ काटने की क्रिया की तपस्या के फल का नाश होने के रूप में श्लोकव्यापी उत्प्रेक्षा हुई है । साथ ही दोनों उत्प्रेक्षाओं में ‘चिच्छिदतुः' एक ही क्रिया का विधान होने से दीपक का विन्यास भी हुआ है । इसी प्रकार द्वितीय उत्प्रेक्षा में उपमान वाक्य में भी उसी प्रकार उपमान, उपमेय तथा साधारण धर्म का प्रयोग हुआ है जैसा कि उपमेय वाक्य में, अत: दृष्टान्त भी कहा जा सकता है । ‘भ’, ‘ज’ की आवृत्ति से अनुप्रास का विन्यास भी स्पष्ट है । इस आवृत्ति के अन्तर्गत ‘भुजा' पद की आवृत्ति मध्य यमक का आभास भी करा रही है, अत: यहाँ सङ्कर अलङ्कार का विन्यास अत्यन्त सुन्दर ढंग से हुआ है । निष्कर्ष I इस प्रकार द्विसन्धान-महाकाव्य की अलङ्कार योजना से स्पष्ट हो जाता है कि इसे शब्दाडम्बरपूर्ण कृत्रिम काव्य क्यों कहा जाता है । धनञ्जय ने जिन विविध प्रकार के अलङ्कारों से अपनी कविता रूपी कामिनी का शृङ्गार किया है उनमें शब्दालङ्कारों की ही प्रधानता है । काव्य कलेवर की विविध अपेक्षाएं द्विविध रूप से रूपान्तरित होना चाहती हैं इसलिए कवि को पद-पद पर शब्दालङ्कारों ने सहायता दी है। दूसरे शब्दों में शब्द क्रीडा के विविध रूपों में शब्दालङ्कार स्वयं ही नियोजित होते चले गये । श्लेष और यमक नामक शब्दालङ्कारों ने सन्धान- काव्य को सार्थकता प्रदान की है । फलत: प्रस्तुत अध्याय में इनके विविध रूपों के विवेचन को सर्वाधिक स्थान एवं महत्व दिया गया है। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि द्विसन्धान के आधार पर यमक के बारह प्रमुख भेदों का अस्तित्व रहा था । उपभेदों की संख्या तो गणनातीत ही माननी चाहिए। श्लेष के पाँच मुख्य भेद विशेषत: व्यवहृत हुए हैं । इनके अतिरिक्त चित्रालङ्कारों की भी विशेष छटा दर्शनीय है, जिनमें ‘श्लोक गूढ अर्धभ्रम' तथा 'गति चित्र' आदि चित्रालङ्कार सन्धान-विधा को समृद्ध करने में विशेष सहायक सिद्ध हुए हैं। शब्दालङ्कार स्वाभाविक नहीं होते । उनके नियोजन हेतु कवि को अपने शब्द-कोश ज्ञान का विशेष पाण्डित्य दिखाना होता है । द्विसन्धान-महाकाव्य में विविध शब्दालङ्कारों की योजना से यह स्पष्ट हो जाता है । 1
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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