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________________ १७८ ततसारतमास्थासु सुभावानभितारधीः । धीरताभिनवाभासु सुस्थामा तरसातत । १ प्रस्तुत पद्य के पूर्वार्ध को विपरीत क्रम से पढ़ने पर उत्तरार्ध बन जाता है, अतः तदक्षरगत गति चित्र है । सन्धान- कवि धनञ्जय की काव्य चेतना (iii) पादगत- गतप्रत्यागत इस गतिचित्र में पादार्थ की प्रतिलोम आवृत्ति करने पर पूर्ण पाद बन जाता 1 है । सर्वतोभद्र से मिलते-जुलते इस गतिचित्र का संस्कृत काव्यशास्त्रियों द्वारा कोई विवेचन नहीं किया गया है । इस प्रकार का प्रयोग द्विसन्धानकार का मौलिक प्रयोग प्रतीत होता है, जो निम्न रूप से किया गया है त्रस्तेऽराव वरास्तेऽत्र केशवे न नवेऽशके । तेपे चारु रुचापेते नाधुते न नतेऽधुना ॥ २ प्रस्तुत पद्य के प्रत्येक पाद के पूर्वार्ध में गति है तथा उत्तरार्ध में प्रत्यागति है, अत: पादगत-गतप्रत्यागत है । (iv) अर्धभ्रम I जिसमें श्लोक का, बन्धाकार लिखित श्लोक पाद का अर्धमार्ग से अर्थात् केवल अनुलोम पाठ से भ्रमण अथवा भ्रमण द्वारा पादोत्थान हो, वह अर्धभ्रम कहा जाता है। इस प्रकार के चित्रों के लिये अष्टाक्षर वृत्त ही उपयुक्त है । इसको चित्रांकित करने के लिये चौंसठ कोष्ठों में लिखा जाता है । आठ-आठ कोष्ठों वाली आठ पंक्तियाँ बनायी जाती हैं। उनके प्रथम पंक्ति चतुष्टय में श्लोक के चारों पाद सीधे लिखे जाते हैं। तदन्तर नीचे की चार पंक्तियों में चतुर्थ, तृतीय आदि के विपरीत क्रम से वही श्लोकपाद उलट कर लिख दिये जाते हैं । इस प्रकार इसका चित्र में वर्णसिन्निवेश किया जाता है । द्विसन्धान-महाकाव्य में अर्धभ्रम का विन्यास इस प्रकार हुआ है I १. द्विस.,१८.१४३ २ . वही, १८.११६ ३. काव्या., ३.८०
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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