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________________ १७० सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य चेतना संख्या १,५,१४, १७, २२, ३२, ३५, ५०,५६, ८६,९०,९६, ११२, ११४, १२७, १३२, १३५ व १३६ भी द्रष्टव्य हैं। (ii) द्वितीय-चतुर्थ पादाभ्यास यमक ज्वलत्युमुष्मन्कुपिते महीपतावनेकबन्धानि विभावसाविव । प्रिये प्रजानां ननृत् रणे तथा वने कबन्धानि विभावसाविव ।। यहाँ द्वितीय पाद की चतुर्थ में यथावत् आवृत्ति हुई है, अत: द्वितीय-चतुर्थ पादाभ्यास यमक है । इस प्रकार के यमक को भरत ने विक्रान्त यमक के रूप में स्वीकार किया है । रुद्रट इसे संदंष्टक यमक कहते हैं । द्विसन्धान-महाकाव्य में पद्य संख्या ६.३५, ८.१३, १५, १७, २३, ५०, १८. २, ३, ७, १०, १५, १६, २४, ४४, ४६,५३,६५,६७,७२,७५,७७,८५,९३,९८, ११०,११५, ११९, १२३, १२४ यह स्पष्ट करती हैं कि धनञ्जय को ऐसे यमक अतिप्रिय हैं। (ख) अर्धाभ्यास यमक जहाँ एक अर्धवृत्त से ही पूरे वृत्त (पद्य) की पूर्ति हो जाती हो, उसे अर्धाभ्यास यमक कहते हैं। भरत ने इस समुद् यमक कहा है ।२ द्विसन्धान-महाकाव्य में अर्धाभ्यास यमक का प्रयोग इस प्रकार हुआ है अत्रासनक्रमकरैरयमाविलोऽलमायातिपातिविसरो जवनस्वरोऽधः । अत्रासनक्रमकरैरयमाविलोलमायातिपातिविसरोजवनस्वरोऽधः ।। यहाँ पूर्वार्ध की उत्तरार्ध में समान आवृत्ति होने के कारण उक्त अलंकार है। इसी प्रकार द्विसन्धान का एक अन्य पद्य दर्शनीय है अत्यन्तकोऽपकारेण निरास्थन्न तदानवम्। अत्यन्तकोपकारेण निरास्थं न तदानवम् ।। १. द्विस, ६.३३ २. 'अर्धेनैकेन यद्वृत्तं सर्वमेव समाप्यते । समुद्यमकं नाम तज्ज्ञेयं पण्डितैर्यथा ॥',ना.शा.,१६.७० ३. द्विस,६.२२ ___४. वही,१८.८३
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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