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________________ अलङ्कार-विन्यास १६७ (झ) अन्तादिक यमक जहाँ पूर्वपाद का अन्तिम भाग अग्रिम पाद के आदि भाग से साम्य रखते हुए आवृत्त होता है, उसे अन्तादिक यमक कहते हैं । भरत ने इस प्रकार के यमक को चक्रवाल यमक नाम से अभिहित किया है। विभिन्न काव्यशास्त्रियों ने इसके कई भेद किये हैं, उनमें से जो द्विसन्धान में उपलब्ध हैं, वे इस प्रकार हैं(i) प्रथम-द्वितीय पादगत अन्तादि यमक स्वस्यारेश्चायोधयन्मित्रमित्रं मित्रं पाणिंग्राहमाक्रन्दकश्च । नन्वासारावप्युपायैर्जिगीषुः शक्त्या सिद्धयाभ्युद्यतो हन्त्यरातिम् ॥२ (ii) तृतीय-चतुर्थपादगत अन्तादिक यमक बलेन य: स्वयमनिलोऽपि नानिल: सनीतिरप्यभवदनीतिगोचरः। अशीतक: शशिशिशिर: समेखल: समेखलस्त्विति न जनेन दूषित: ॥३ इस प्रकार अन्य उदाहरणों में द्विसन्धान के पद्य १.४६ तथा १८.८० भी द्रष्टव्य हैं। (iii) चतुष्पादगत अन्तादिक यमक इत्याकर्ण्य तमुत्साहं साहंकारं सुरावली। सुरावलीला साशंसं साशं संप्रशशंस तम् ॥ द्विसन्धान महाकाव्य के पद्य ६.३७, ८.९, ८.११, ८.४६ तथा १८.४८ में भी इस यमक का सुन्दर ढंग से विन्यास हुआ है। २. अस्थान यमक जहाँ वर्णसमुदाय की आवृत्ति के लिये एक निश्चित स्थान-पाद के आदि, मध्य अथवा अन्त की कोई अपेक्षा नहीं होती, वहाँ, अस्थान यमक होता है । भामह १. 'पूर्वस्यान्तेन पादस्य परस्यादिर्यदा समः। चक्रवच्चक्रवालं तद्विज्ञेयं नामतो यथा ॥', ना.शा.,१६७४ २. द्विस,११.११ ३. वही,२:२९ ४. वही,१८९२
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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