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________________ पञ्चम अध्याय रस-परिपाक भारतीय साहित्य-साधना का मुख्य आधार तत्त्व रस रहा है। विश्वनाथ जैसे रसवादी साहित्याचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा कहकर इसके महत्व को पर्याप्त उभारने की चेष्टा की है। रस के इस काव्यशास्त्रीय पक्ष के अतिरिक्त हमें यह भी देखना चाहिए कि सातवीं-आठवीं शताब्दी ईस्वी में काव्य की रसमयता विशेष प्रभावित हुई है । अश्वघोष, कालिदास जैसे कवियों के रसपेशल काव्य के स्थान पर भारवि आदि महाकवियों ने कृत्रिम एवं शब्दाडम्बरपूर्ण काव्य-साधना का श्रीगणेश कर सामन्तवादी काव्य-मूल्यों हेतु दिशा-निर्देशन का कार्य किया। सातवीं-आठवीं शताब्दी ईस्वी में भारतीय साहित्य-साधना तत्कालीन राजनैतिक अराजकतावाद से विशेष प्रभावित होकर नि:सृत हुई है। अधिकांश रूप से देश में युद्धों का वातावरण होने के कारण वीर रस को काव्य में प्रधानता दी जाने लगी थी तथा उसके साथ स्पर्धा करने वाले शृङ्गार रस को भी विशेष महत्व दिया जाने लगा था । सामन्त राजाओं की विलासपूर्ण दिनचर्या एवं शृङ्गार सुख के प्रति उनके विशेष आकर्षण के कारण काव्यों व महाकाव्यों में ऐसे वर्णन विशेष रूप से काव्याङ्कित किये जाने लगे, जिनमें वीर एवं शृङ्गार की विशेष अभिव्यक्ति हो ।२ तत्कालीन साहित्याचार्यों द्वारा प्रतिपादित महाकाव्य-लक्षणों की ओर यदि हम दृष्टिपात करें तो स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने दूत-प्रेषण, राजनैतिक-मन्त्रणा, युद्ध-प्रयाण, घमासान युद्ध-वर्णनों के माध्यम से वीर रस की संयोजना हेत् महाकाव्य को साहित्यिक कलेवर प्रदान किया, तो दूसरी ओर सलिल-क्रीडा, १. 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्', साहित्यदर्पण,१.३ २. तु.-'कामास्त्रशाला इव यत्र बालाः', नेमिनिर्वाण,१.३९ ३. तु.- ‘मन्त्रदूतप्रयाणाजिनायकाभ्युदयैरपि', काव्या,१.१७
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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