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________________ १४६ ] [ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र एगन्तरन्ते रुइरंसि गन्धे, अता तालिसे से कुणइ पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेरा मुणी विरागो ॥ ५२ ॥ गन्धाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽगरूवे । चितेहि ते परितावेइ बाले, पीले अन्तट्टगुरु किलिट्टे ।। ५३ ।। गन्धाणुवारण परिग्गहेण: उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वर विश्रोगे य कहं सुहं से, संभोगकाले यतित्तलाभे ? ॥ ५४ ॥ गधे अतित्त य परिग्गहम्पि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि । अतुट्ठिदो सेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ।। १५ ।। दत्तहारिणो तराहा भिभूयस्स गन्धे तित्तस्स परिग्गहे य ।. माया वह लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुञ्चर से ॥ ५६ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरन्थओ य, पओगकाले यदुही दुरन्ते । - एवं श्रदन्ताणि समाययन्तो. गन्धे तित्तो दुहिओ णिस्सो ॥ ५७ ॥ गन्धापुरन्तस्स नररुम एवं, कुत्तो सुहं होज कयाह किंचि ?
SR No.022614
Book TitleDashvaikalik Tatha Uttaradhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshchandra Maharaj
PublisherAtmaram Mohanlal Sheth
Publication Year1949
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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