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________________ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र] [६१ उत्रेहमाणो उ परिवइजा, . पियमप्पियं सवं तितिक्खइजा। न सव्व सव्वत्थऽभिरोयइजा, "न याघि पूर्य गरहं च संजए ॥ १५ ॥ 'अणेगच्छन्दा इह माणवेहिं, - जे भावो संपगरेइ भिक्खू । भयभेरवा तत्थ उइन्ति भीमा, ....... दिव्वा मगुस्सा अदुवा तिरिच्छा ।।१६।। परीसहा दुब्धिसहा अणेगे, सीयन्ति जत्थ बहुकायरा नरा! सेतत्य पत्ते न वाहेज भिक्खू, संगामसीसे इव नागराया ॥ १७ ।। सीअोसिणा दंसमसा य फासा, . . आयंका विविहा फुसन्ति देहं । अकुक्कुप्रो तत्थऽहियासएजा, . रयाई खेविज पुरे कयाइं ॥ १८ ॥ पहाय रागं च नहेव दोसं, __ मोहं च भिक्खू सययं वियक्खणो । मेरुव वारण अकम्पमाणो, परीसहे पायगुत्ते सहेजा ॥ १६ ॥ अणुन्नर नावणए महेसी, न यावि पूयं गरहं च संजए । स उज्जुभाव पडिवज संजए, निवारण मग्गं विरए उवेद ॥२० ।। १. उवेन्ति । २. अकक्करे ।
SR No.022614
Book TitleDashvaikalik Tatha Uttaradhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshchandra Maharaj
PublisherAtmaram Mohanlal Sheth
Publication Year1949
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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