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________________ २६८ ] [ जीवन-श्रेयस्कर - पाठमाला " स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं । ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुःख समूह को हरते हैं ||२॥ रहे सदा सत्संग उन्हीं का, ध्यान उन्हीं का नित्य रहे । उन्हीं जैसी चर्या में यह, चित्त सदा अनुरक्त रहे || नहीं संताऊँ किसी जीव को, झूठ कभी नहीं कहा करूँ । परधन वनिता पर न लुभाऊँ, संतोषामृत पिया करूँ ||३|| अहंकार का भाव न रक्खूं, नहीं किसी पर क्रोध करूँ । देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या भाव धरूँ । रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करूँ । बने जहाँ तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूँ ॥४॥ मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे। दीन दुःखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा स्रोत वहे ॥ दुर्जन- क्रूर - कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे । साम्यभाव रक्खूं मैं उन पर ऐसी परिणति हो जाये ||१| गुणी जनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे । जहाँ तक उनकी सेवा, 'करके यह मन सुख पावे || होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे । गुण ग्रहण का भाव रहे, नित दृष्टि न दोषों पर जावे ||६|| कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे । लाखों वर्षो तक जीव, या मृत्यु आज ही आ जावे ॥ अथवा कोई कैसा ही, भय या लालच देने श्रवे । तो भी न्याय मार्ग से मेरा, कभी न पद डिगने पावे ||७|| होकर सुख में मग्न न फूलें, दुःख में कभी न घबरावें । पर्वत, नदी, स्मशान भयानक, अटवी से नहीं भय खावे ॥ रहे डोल, अकम्प निरन्तर, यह मन दृढ़तर बन जावे ! इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, सहनशीलता दिखलावें ||८||
SR No.022602
Book TitleJivan Shreyaskar Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKesharben Amrutlal Zaveri
PublisherKesharben Amrutlal Zaveri
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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