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________________ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र ] [७७ नरनारिं पजहे सया तवस्ती, न य कोऊहलं उवेइ स भिक्खू ॥६॥ छिम्नं सरं मोमन्तलिक्ख, . . सुमिणं लक्खणदण्डवत्थुविजं । अंगवियारं सरस्स विजयं, जे विजाहिं न जीवइ स भिक्खू ॥७॥ मन्तं मूलं विविहं वेजचिन्तं, वमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं । पाउरे सरणं तिगिच्छियं च, तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ।।८।। खत्तियगणउग्गरायपुत्ता, माहणभाई य विधिहा य सिप्पिणी। नो तेसिं वयइ सिलोगपूयं , __ तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥६॥ गिहिण जे पव्वइएण दिट्ठा, अप्पव्वइएण व संथुगा हविजा। तेसिं इहलोइयफलट्ठा, जो संथवं न करेइ स भिक्खू ॥१०॥ सयणासणपाणभोयणं, विविहं खाइमसाइम परेसिं । · अदए पडिसेहिए नियएठे, . जे तत्थ न पउस्सइ स भिक्खू ॥११॥ जं किं चि आहारपाणगं', विविहं खाइमसाइमं परेसिं लर्छ । १. पाणजायं
SR No.022602
Book TitleJivan Shreyaskar Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKesharben Amrutlal Zaveri
PublisherKesharben Amrutlal Zaveri
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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