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________________ [१२] उनका उल्लेख प्रतिपक्षियों द्वारा 'गरगिर' रूपमें होना भी ठीक है। इस विवेचनका सम्बंध 'अरुणमुख' शब्दसे भी ठीक बैठता है। जिसका प्रयोग उन यतियोंके लिये हुआ था जो जैन थे, जैसे पहले कहा जाचुका है । इस कथनका समर्थन इन शब्दोंसे भी होता है जो जैन भावको प्रगट करते हैं; यथाः-ऋषभ, आदिजिन, महावतपतिः, महायतिः, महाव्रतः, यतीन्द्रः, ढव्रतः, यतिः, अतीन्द्रः, इन्द्राचर्यः आदि । इनसे केवल यतियों और व्रतियोंका अस्तित्व ही जैन शास्त्रोंमें प्रगट नहीं होता, बल्कि इनसे यह भी प्रगट है कि इस धर्मके प्रभावके सामने इन्द्र सम्प्रदाय-वैदिक मतका ह्रास हुआ था । ' अदन्डयम् दन्डेण अनन्तश्चरंति ' अर्थात् 'वे उसको दण्ड देकर रहते जिसको दण्ड नहीं देना चाहिये।' इस उल्लेखसे प्रगट है कि व्रती पुरुष जहां रहते हैं वहां इन्द्र-यज्ञोंके विरुद्ध आज्ञायें निकालते हैं, क्योंकि उसमें हिंसा होती है। ऐतरेय ब्राह्मण एवं अन्य वैदिक साहित्यमें ऐसे बहुतसे उल्लेख हैं जिनमें विविध राजाओं द्वारा उनके राज्योंमें यज्ञोंके करने देनेका निषेध मौजूद है । सतपथ ब्राह्मण और वजसनेय संहितासे भी यही प्रगट है जिनमें कौशल-विदेह देशके पूर्वी आर्योंको मिथ्या धर्मानुयायी और वैदिक यज्ञोंका विरोधी लिखा है और यहां जैनधर्मका बहु प्रचार प्राचीनकालसे था। व्रात्योंके खास वस्त्र, पगड़ी, रथ आदि जो कहे गये हैं; वह एक साधारण और स्थानीय वर्णन है पगड़ी, रथ, ज्यहाद और उनका सम्बंध केवल ग्रहस्थ एवं आदि शब्दोंकी गृहपति व्रात्यों (जैनों )से है। किन्तु
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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