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________________ [ २३ ] 9वीं शताब्दि ) वैदिक विद्वान् कौत्स्य वेदोंकी असम्बंधता देखकर भौंचकासा रह गया था और उसने वेदोंको अनर्थक बतलाया था (अनर्थका हि मंत्राः । यास्क, निरुक्त १५ - १) यास्कका ज्ञान भी वेदोंके विषय में उससे कुछ ज्यादा अच्छा नहीं था । (निरुक्त १६/२) फिर ईस्वी चौदहवीं शताब्दिमें आकर सायण भी ऋग्भाष्य में वैदिक मान्यता के अर्थको ठीकर नहीं पाता है । ( स्थाणुरयम् भारहारः किलाभूर्वित्य वेदं न विज्ञानाति योऽर्थम् ।) इस दशा में यह कैसे कहा जासक्ता है कि वेदों में ऋषभ नेमि, अर्हन् आदि जैनत्व द्योतक शब्दों का अर्थ जो आजकल किया जाता है वहां ठीक है ? स्वयं ब्राह्मण विद्वान ही उनको जैनत्व सूचक बतलाते हैं। उधर प्राचीन जैन विद्वान उनका उल्लेख जैनधर्मकी प्राचीनता के प्रमाण रूपमें करते मिलते हैं । तिसपर स्वयं भाष्यकार सायण वैदिक अर्थको स्पष्ट करनेके लिये पुराणादिको प्रमाणभूत मानता है और पुराणादिमें ऋषभ, अर्हन् आदि शब्द स्पष्ट जैनत्व सूचक मिलते हैं । अतः वेदोंमें जैनोंका उल्लेख होना प्राकृत सुसंगत है । वेदोंके बाद रामायण में भी जैन उल्लेख मौजूद है; जिससे स्पष्ट है कि 'रामायण काल' में भी जैन धर्म विद्यमान था । रामायणके बालकाण्ड ( सर्ग १४ श्लो० २२ ) के मध्य राजा दशरथका श्रमणको आहार देने का उल्लेख है । ( " तापसा भुञ्जते चापि श्रमणा भुञ्जते तथा । ") श्रमण शब्दका अर्थ भूषण टीकामें दिगम्बर साधु किया गया है । ( " श्रमणा दिगम्बराः श्रमणा वातवसनाः । " ) अतएव यह श्रमण दिगम्बर जैन रामायण कालमें जैनधर्म |
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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