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________________ ४०८ ] भगवान पार्श्वनाथ | वैसे जन्म मेरा ऐसे स्थानमें हुआ जहां जैनमतका नाम सुननेको नहीं था और बचपन भी जिनेन्द्र भगवानकी शरणसे दूर२ वीता पर इसका अर्थ यह नहीं है कि पुण्योदयसे मेरा जन्म एक जैन कुलमें नहीं हुआ है ? मैं जन्मसे जैनी अवश्य हूं | परन्तु जैन कुलमें जन्म लेनेसे ही कोई जैनी नहीं होजाता ! इसीलिये मैं कहता हूं कि मैं जैनी बननेकी कोशिषमें हूं। जैनधर्म है विजयमार्ग ! विजयी - वीर ही इसको अपनानेके अधिकारी हैं ! मनुष्य में जितनी नीचता है, संसारका जितना अहंकार है, उस सबपर विजय पानेके लिये जब कहीं तैयारी की जाय तब कोई जैनी हो ! अथवा कवि 'भाषके शब्दों में 'सकलजनोपकार सज्जा सज्जनता जैनी' जैनी है । - मनुष्य मात्र के उपकार करनेका सज्जनोत्तम भाव हृदय में जागृत होना कठिन है ! फिर भला कोई जैनी कैसे होवे ? अपनेमें इसी भावको जागृत करनेकी उत्कट अभिलाषासे विजयी वीरों-महावीरोंके चरि में मन पग रहा है । शायद मैं कभी सचमुच जैनी हो जाऊँ ? फिर भला कहिये कि इस अवस्था में मेरा परिचय लिखने से किसीको क्या फायदा होगा ? यह भी तो एक अहंकार है । पर संसारकी ममता और लोगोंका कौतूहल जो कराले सो थोड़ा है ! वैसे उनमें और मुझमें अथवा अन्य किसीमें अन्तर ही किस बातका है। अंतरके कपाट खुलें तो सच्चा दर्शन ठीक परिचय मिल जावे ! मेरे इस वर्तमान रूपका अवतरण भारतवर्ष में संयुक्त प्रांतके एक जैन कुटुम्बमें हुआ है । उस समयकी बात है कि जब मुगल साम्राज्य छिन्न भिन्न होगया था, तब विविध प्रांतोंके शासक स्वाधीन राजा और नवाब बन बैठे थे । फर्रुखाबाद में भी एक ऐसी
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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