SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवानका निर्वाणलाभ! [३७७ नाथजीका भी इन्हींमें है) इन मंदिरोंमें अव योरूपियन लोगोंके पहुंचनेकी मनाई है, किन्तु सन् १८२७ ई०में एक इग्रेजने इनके दर्शन किये थे। उन्होंने पाश्वनाथ भगवानकी नग्न मूर्तिको ध्यानाकारमें उनके सर्पचिन्हसे मंडित यहां पाया था । समूचे पर्वतपर और बहुतसे मंदिर हैं, जिनकी प्रत्येक जैनी अवश्य ही वंदना करता है। यह प्रवर्ति भगवान् पाश्वनाथनीके मंदिरकी वंदना और पर्वतकी परिक्रमाके साथ पूर्ण होती है, परिक्रमा करीब तीस मीलका है ।"२ यहां सर्व प्राचीन मंदिर १७६५ ई की है। दिगम्बर सम्प्रदाय भी यहां प्राचीनकालसे पूजा-वन्दना करती आई है और मूलमें इसी संप्रदायकी प्रतिमा श्री पार्श्वनाथनीकी टौंकपर विराजमान रही हैं। इस भव्य स्थानके दर्शन करते ही आनन्दसे शरीर रोमांच हो उठता है, और यात्री पुलकितवदन हो सारे दुःखसंकट भूल जाता है। तीर्थकर भगवान्के चरणकमलोंसे पवित्र हुआ स्थान अवश्य ही अपना प्रभाव रखता है। जिन बुरी आदतोंको मनुष्य अन्यत्र लाख प्रयत्न करनेपर भी नहीं छोड़ता उन्हींको वह यहां बातकी बातमें त्याग देता है । यह इस पुण्य स्थानका पवित्र प्रभाव है, जैनियोंमें इसका आदर विशद है । प्रत्येक जैनीको विश्वास है कि इसकी 6-In recent times no European has been allowed to enter the temples; but a visitor, who examined them in 1827 found the image of Parsvanath to represent the saint, sitting naked in the attitude of meditation, his head Shielded by the snake, which is his special emblcm. "-W. Crooke. in ERE. ... २-इन्साइल्कोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इथिक्स-पारसनाथहिल । ३-० बि. के. जैनस्मार्क पृ० ४० । .
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy