SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७२] भगवान पार्श्वनाथ । निस महापवित्र पर्वतराजकी टोकोंपरसे परमगुणधारी अनंते मुनीन्द्रः . और कई तीर्थकर भगवान् समस्त कर्मोंका नाश करके मोक्ष पधारे थे, वह इन भगवान्को अपने अङ्कमें धारण करते फूला न समाया था ! देवदुन्दभिकी प्रतिध्वनिरूप जो महाप्रिय आनन्दध्वनि उसकी गुफा. ओंमेंसे निकलती थी, वह उसके प्रसन्न भावोंको प्रकट कररही थी! त्रिजगपूज्य भगवान्को अपने अञ्चलमें पाकर भला वह क्यों न प्रमुदित होता ? वह उनको पाकर हमेशाके लिये पवित्र होगया । देशविदेशोंमें उसका नाम होगया! देवोंने भी उसकी गुणग्राहकताका मूल्य उसी समय चुका दिया । उनने उसकी सर्वोच्चशिखरका नाम, जिसपर भगवान् पार्श्वनाथनी आ विराजमान हुए थे, सुवर्णभद्रकूट रख दिया ! उसके उस सुवर्णमयी कूटपर विराजित भगवान् परम शोभाको धारण किये हुये थे। तिसपर देवोंद्वारा की गई पुष्पोंकी वृष्टि भगवान्के लिये स्वयंवरमाला सरीखी ही जान पड़ती थी; मानो मोक्षसुंदरीने स्वयं ही आकर उन भगवान्को वर लिया हो! भगवान्ने श्रीसम्मेदशिखिरपर आकर अपनी समवशरण विभूतिका त्यागन कर दिया था। वह विभूति स्वयं ही विघट गई थी। भगवान् इसप्रकार समस्त सभासे विमुक्त होकर एक मासका योग निरोध करके विराजमान होगये थे। उनके साथ छत्तीस मुनिराज और थे। वे भगवान् प्रतिमायोगमें तिष्ठ रहे थे। श्रावण शुक्ला सप्तमीके सबेरे ही उनने तीसरे और चौथे शुक्लध्यानोंका आश्रय लिया था। और शेष चार अघातिया कर्मोका नाश करके वे अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पांच शब्दोंके उच्चारण करने जितने १-पार्श्वनाथचरित (कलकत्ता) पृ. ४१७ ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy