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________________ २९४] भगवान पार्श्वनाथ । तिकमें इन्हें क्रियावादी बतलाया गया है। मुण्डकोंने अपनेको ब्राह्मण ऋषियोंसे, जो बनमें रहते, तप तपते और पशु यज्ञ करते थे, एवं गृहस्थाश्रमी विप्रोंसे पृथक् व्यक्त करने के लिये अपना वह संप्रदाय अलग स्थापित किया था। वे शिर मुड़ाकर भिक्षावृत्तिसे उदर पोषण करते थे। वह जाहिरा जटाधारी ब्राह्मग ऋषेयोंसे अलग थे, परन्तु मूलमें वह पूर्णतः वेदविरोधी नहीं थे। उनने इनमेंसे मध्यपुरुषका स्थान ग्रहण किया था। भारद्वान मुंडे सिर रहनेसे 'मुण्ड' नामसे प्रख्यात् हुआ अनुमान किया जाता है और उसके शिष्य 'मुण्ड श्रावक' कहलाते थे। यहांपर इसतरह एक अलग संपदाय स्थापित करने का कोई कारण भी अवश्य होना चाहिये । साधारणः कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता, सिवाय इसके कि भगवान् पार्श्वनाथ नीके धर्मोपदेशका प्रभाव यहां भी कार्यकारी हुआ हो ! भगवान के बताये हुये श्रावक मार्ग में सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमाके धारी श्रावक सिर भी मुंड़ाते हैं और भिक्षावृत्तिसे ब्रह्मचर्य पूर्वक रहकर जीवन बिताते हैं और आठवीं प्रतिमामें पूर्णतः आरम्भ त्यागी हों नाते हैं। उपरोक्त मुण्डक संपदायके भिक्षुओंका जीवन भी इसी तरहका था और उनका निकास ब्रह्मचारियों मेंसे हुआ कहा भी जाता है तथापि जो उनके साथ 'श्रावक' शब्द लगा हुआ है, वह स्पष्ट प्रकट कर देता है कि इस संप्रदायकी उत्पत्ति भगवान पार्श्वनाथके बताये हुये गृहत्यागी श्रावकोंके अनुरूपमें हुई थी। यही कारण है कि एक विद्वान्ने इसकी १-राजवासिक (11) पृ० २९४ । २-प्री-बुद्धि० इन्डि० फिला० पृ. २४० । ३-पूर्व० पृ. २४२-२४३ ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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