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________________ धर्मोपदेशका प्रभाव । [२८५ पार्श्वनाथजीने ज्योंही सत्यका सिंहनाद प्राकृतरूपमें घोषित किया था त्योंही इन गहनवनोंके भीतरवाले आश्रमों में भी हलचल मच गई थी, अग्निहोत्रिकी उच्च ज्वालायें एक क्षणके लिये थम गई थीं। शिष्यगण एवं साधारण जनता धर्मके नामपर की जानेवाली इस हिंसाके विषयमें सशङ्क हो स्पष्टरूपसे इसका समाधान करनेका आग्रह करने लगे थे । सत्यका वहांपर प्रायः अभाव देख कर कह भगवानकी शरणमें आये थे । यही कारण था कि भगवान पार्श्वनाथका सम्बोधन उस प्राचीनकालमें “सर्वजनप्रिय” ( People's Favourite ) के नामसे होने लगा था। ईसाकी प्रारंभिक शताब्दियोंमें हुये श्री समन्भद्राचार्यनी भी यही कहते हैं कि जिस घातिया कर्मों के नाश करनेवाले तीनलोकके स्वामी पार्श्वप्रभुको देख वनवासी कुतपस्वी, पञ्चाग्नि आदि साधनोंमें विफल मनोरथ होते हुए, भगवानके सदृश होनेकी इच्छासे, शांतिके उपदेश भगवान् अथवा जिसमें शांतिका उपदेश है ऐसा मोक्षमार्ग उसके शरणीभूत हुये अर्थात सच्चे मार्ग में लगे थे ।” शकसंवत् ७३६में हुये श्री जिनसेनाचार्य भी अपने “पार्श्वभ्युदय काव्य" में यही कहते हैं, यथा'इति विदितमहर्दि धर्मसाम्राज्यमिन्द्रा, जिनमवनतिभाजो भेजिरे नाकभाजाम् । शिथिलितवनवासाः प्राक्तनी प्रोज्झ्य वृत्ति, शरणमुपययुस्त तापसाः भक्तिनम्राः॥ ६९ ॥' "टीका-जटिलादयः कुतापताः निकायक्लेशे निष्फलत्वं निश्चिन्वन्तः । तपोमहिम्ना प्राप्तोदयं पार्श्वतीर्थकरं तत्तपोलब्धुकामाः शरणं ययुरिति भावः । यो गिराट् । " .
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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