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________________ भगवानका धर्मोपदेश ! [ २६१ कूल हैं, और इन परसम्बंधों को त्याग देना उसी तरह संभव है जिस तरह देहपर चिपटी हुई मिट्टीको अलग कर देना सम्भव है । नाइट्रोजन और हाइड्रोजन गैसें अपने सम्बंधितरूपमें अपनी असली हालतको जाहिरा गंवा देतीं हैं; परन्तु वह अपनी स्वाभाविक दशा में उसे फिर प्राप्त कर लेती हैं। यही संसारमें रुलते हुये जीवके लिये संभव है, किन्तु यहां पर एक प्रश्न अगाड़ी आता है कि सूक्ष्मपुद्गल कर्मवर्गणायें उसे दुःख और सुख कैसे पहुंचाती हैं ? उनसे एकसाथ दो तरह की हालत कैसे पैदा होजाती है ? भगवान पार्श्वनाथ धर्मोपदेशमें इस शङ्काका प्राकृत निरसन किया हुआ मिलता है । उन्होंने बतला दिया है कि कर्म वर्गणाओंके अनेकानेक भेद हैं । जितनी ही हालतें इस संसार में हो सक्ती हैं उन सबके अनुरूप कर्मवर्गणाएँ मौजूद हैं । शरीरको सिरजने वाला केवल एक नामकर्मरूपी सूक्ष्म पुद्गल ही है; परन्तु उसके अन्तरभेद भी कई हैं । हड्डियोंका निर्माणकर्ता एक 'अस्थिकर्म' उसीका भेद है, किन्तु यह समग्र कर्म वर्गणा में मुख्यतः आठ प्रकार की बताई गई हैं। इन्हीं उत्तरभेद १४८ होजाते हैं और फिर वह अगणितमें भी परिगणित किये जाते हैं। उसके मुख्य आठ भेद इस प्रकार बताये गए हैं: १. ज्ञानावर्णीय कर्म - वह शक्ति है जो जीवात्मा के ज्ञान गुणको आच्छादित करती है । २. दर्शनावर्णीय कर्म - वह शक्ति है जो जीवात्मा के देखनेकी शक्ति में बाधा डालती है । ३. अंतराय कर्म - यह आत्मा के निज बलपर आच्छादन डालता है ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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