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________________ [ २२७ ज्ञानमामि और धर्म प्रचार | सकनेकी महोधशक्ति विद्यमान है। उसके लिये कोई कार्य कठिन परमात्मपदको प्राप्त अलौकिकता नहीं 2 सहारा लिये विना 1 नहीं है । अस्तु आत्मा के स्वाभाविक रूप · हुये भगवान् पार्श्वनाथ के लिये इसमें कुछ भी थी कि वह दिव्य देहके धारक थे, पृथ्वीका ही अधर गमन करते थे और सिंहासनपर अंतरीक्ष विराजमान होकर मेघगर्जनकी भांति धर्मोपदेश देते थे, जिसे हरएक प्राणी अपनी २ भाषा में समझ लेता था । यदि इन बातोंको अलौकिक मान लिया जाय और इस कारण स्वयं भगवान् पार्श्वनाथ मनुष्योंसे विलग कोई लोकोत्तर व्यक्ति मान लिये जांय, तो उनसे हमारा क्या मतलब संघ सक्ता है ? हम मनुष्य हैं । हमारा पथप्रदर्शक भी मनुष्य होना चाहिये । जैनी करीब ढाई हजार वर्षो से इन पार्श्वनाथ भगवान को अपना मार्ग-दर्शक पूज्यनेता मानते आये हैं और वह इनको एक हम आप जैसा मनुष्य ही बतलाते हैं । - इसलिये उनके विषय में अलौकिकताका अनुमान करना वृथा है । वह हमारे समान मनुष्य ही थे; परन्तु वह अपने कितने ही पूर्व भवोंसे ऐसे सद्प्रयत्न करते चले आ रहे थे कि उनकी आत्मा विशेषतर अपने निजी गुणों को प्राप्त करने में सफल हुई थी और उनके भाग्य में पुण्य प्रकृतियोंकी ही अधिकता थी। इसी कारण अपने इस तीर्थंकर भवमें वह जन्मसे ही इतर मनुष्यों से प्रायः - अपनी सब ही क्रियायों में विलक्षणता रखते थे । महापुरुषोंके लिये सचमुच यह विलक्षणता स्वाभाविक है । वह निर्मित करते हैं । साधारण जनताके पीटे हुये - लेना जरूरी नहीं समझते । इसीलिये यह कहा गया है कि अपना मार्ग स्वयं 1 रास्ते का सहारा
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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