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________________ ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार । [ २२३ अर्थात- 'अनेक नयवादों से जिसका स्वरूप छिपा हुआ है ऐसे जीव अजीव आदि पदार्थ आप सरीखे महानुभावोंके ज्ञानके अगोचर नहीं । यथार्थ रूपसे आपको उनके स्वरूपका ज्ञान है । आप विश्वचक्षु सर्वज्ञ हैं । भगवन्! आपकी कृपासे हमें उनका निर्णय सुलभ रीति से हो सकेगा । ' ( पा० च० पृ० ४०६ -४०७) । प्रथम गणधर स्वयंभू के इस प्रकार निवेदन करने पर मेघकी · गर्जना के समान भगवानकी दिव्यध्वनि खिरने लगी । उसमें वस्तु स्वरूपमें अनुपम पदार्थोंका निर्णय होने लगा और सप्तभंगी नमकर परिपूर्ण परमोपादेय उपदेश हुआ। इस दिव्य उपदेशको सब ही जीव अपनी२ भाषामें समझने लगे, यह शास्त्रों में लिखा हुआ है । जिनेन्द्र भगवानके मुखसे यथावत् तत्वोंका स्वरूप जानकर सब ही भव्यजीव आनन्दमग्न होगये । इसी समय भगवानका जिससे अनेक पूर्वभवों से वैर चला आरहा था वह भूतानंद संवर नामक देव भगवानके निकट हीन गर्व होकर अपने वैरको भुला सका ! उसे परम सुखकर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होगई । घरणेन्द्र और पद्मावती भगवान के शासन रक्षक देवता माने जाने लगे और धरणेन्द्र के सम्बन्ध में भगवानने कहा था कि वह मोक्ष जायगा । - इस भविष्य सन्देशको सुनकर उपस्थित प्राणियों के हृदय प्रफुल्लित होगये थे । वह भी भगवानके निकट से विनयपूर्वक यथाशक्ति चारित्र नियमोंको गृहण करने लगे थे। आचार्य कहते हैं कि:--- ' तथा धम्र्मोपदेशेन सभासत्र जिनाधिराट् । पार्श्वः प्रल्हादयामास चंद्रः कैरविणीमिव ॥ १८ ॥ सभासीना जनाः केचित्पीत्वा तद्वचनामृते ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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