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________________ बनारस और राजा विश्वसेन । [९३ तीन कालोंमें यहां भोगभूमिकी प्रवृत्ति थी, जिसमें युगल दम्पतिके उत्पन्न होते ही उनके माता-पिता देहावसान कर जाते थे और वे दम्पति युवावस्थाको प्राप्त होकर उस समयके अलौकिक कल्पवृक्षोंसे भोगोपभोगकी मनमानी सामग्री प्राप्त करके सांसारिक आनन्दमें मग्न रहते थे। उनको आनीविका आदिकी कुछ भी फिकर नहीं थी, परन्तु ज्यों२ समय वीतता गया त्यों२ उन कल्पवृक्षोंका वास होता गया और अन्ततः ऋषभदेवके समयमें ऐसा अवसर आ गया कि लोगोंको परिश्रम करके अपने पुरुषार्थके बल जीवन यापन करनेके लिये मजबूर होना पड़ा। इसी समय ऋषभदेवने सब प्रकारके. असि, मसि, कृषि आदि कर्म जनताको सिखाये थे और उनके वर्णादिः स्थापित करके दैनिक जीवन शांतिमय व्यतीत करनेके उपाय बतलाये थे और इसी समय इन्हीं विधाता ऋषभदेवकी आज्ञासे इंद्रने विविध देशों एवं नगरोकी रचना की थी। जैनधर्ममें कालके उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो भेद करके इनमें प्रत्येकको छह कालोंमें विभक्त किया है । उत्सर्पिणी कालमें प्रत्येक वस्तुकी क्रमशः उन्नति होती जाती है और अवसर्पिणीमें ह्रास होते२ एकदम सबकी हानि होजाती है । अवसर्पिणीके छट्टे कालके अन्तमें एक प्रलयसी उपस्थित होती है, जिसमें कतिपय बड़े भाग्यवान जीव ही गिरि कंदराओंमें छिपकर अपने प्राण बचा लेते हैं। यही लोग उत्सर्पिणीके छठे कालके प्रारम्भ होनेपर गुप्तस्थानोंसे निकल कर संसार क्रम प्रारम्भ करते हैं । उत्सर्पिणीके कालोंकी गिनती अवसर्पिणीसे बरअक्स छटे कालसे प्रारम्भ होती है । इस प्रकारके क्रमसे इस संसारका अनादि निधनपना जैनशास्त्रोंमें निदिष्ट
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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