SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ ] भगवान पार्श्वनाथ | I करता है जो उसके निकट सिर्फ तीन ये हैं; (१) ब्राह्मण, (२) यज्ञ, (३) और संसार | अपने पुरखाओंके सामाजिक, नैतिक और आत्मीक कार्यो को करना भी वह उचित बतलाता है । इन कर्तक्योंकी पूर्ति करने को वह तीन लोक - देव, पितृ और नृलोक निर्दिष्ट करता है । नृलोककी प्राप्ति केवल पुत्र द्वारा ही उसने मानी है । इस तरह वह भी प्राचीन मान्यता स्त्री और पुत्रकी प्रधानताको छोड़ नहीं सका है। देव और पितृलोकका लाभ क्रमशः ज्ञान और यज्ञ द्वारा उसने बतलाया है । सामाजिक जीवन के सम्बन्ध में ह कहता है कि मूल में मनुष्योंमें कोई जातीय भेद विद्यमान नहीं थे. धरंतु उपरान्त सामाजिक बढ़वारी और भलाई के लिहाज से जातीय भेद स्थापित किये गये थे । जैनदृष्टि भी कुछ २ इसी तरह की है। भोगभूमिके जमाने में वह भी मनुष्यों में कोई भेदभाव नहीं बतलाते हैं परन्तु कर्तव्य युगके आनेपर आदि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेवने चार वर्ण या जातियां स्थापित की थीं, यह कहते हैं किन्तु जैनधर्म में जातियों की उता आदिपर उतना अभिमान नहीं माना गया है, जितना कि हिंदू ऋषियोंके निकट रहा है। जैनदृष्टिसे जातिमद एक दूषण है पर आसुरी इन जातीय भेदोंको आवश्यक मानता था । भविष्य जन्मके श्रद्धानको भी वह मुख्यता देता था । ' इस प्रकार वैदिक धर्ममें प्रारम्भ से ही गृहस्थकी तरह साधुको भी नियमित रीति से सांसारिक भोगोपभोगका आस्वाद लेना बुरा नहीं माना गया था । स्वयं वेदोंमें ही संतानको मनुष्यका मुक्तिदाता बतलाया गया था । (प्रजातिः अमृतम् ) उनके निकट अमरपनेको प्राप्त करना केवल १- पूर्व पृ० २१८-२२५ ॥
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy