SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान पार्श्वनाथ । देहके खूनसे सुखी होना मानता है और फिर अपनी भ्रम बुद्धिपर पछताता है । इसलिये प्रिये, विवेकी पुरुषोंका यही कर्तव्य है कि इस अमूल्य जीवनको सार्थक बनानेके लिये धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थोका समुचित सेवन कर चुकनेपर-बुढ़ापेका इन्तजार न करके-जब ही संभव हो तब ही निवृत्ति मार्गकी शरणमें आकर शाश्वत सुख पानेका उद्यम करें । फिर देखो, मेरे लिये तो यमका दूत आ ही पहुंचा है ! अब भी मैं अगर इस नर देहका उचित उपयोग न करूं, तो मुझसा मूर्ख कौन होगा। अगाध सागरमें रत्न गुमाकर फिर उसे पानेकी मैं कैसे आशा करूं? अनु०-हां, साहब, न कीजिये ! लेकिन यह तो बताइये, मेरा क्या कीजियेगा ? विश्व०-मोहका पर्दा अभीतक तुम्हारी बुद्धिपरसे हटा नहीं है । पर प्यारी, जरा विवेकसे काम लो ! देखो पति-पत्नी एक गृहस्थी रूपी रथके दो पहिये हैं जो रथको बराबर चलने देते हैं ! इन दोनों पहियोंका एकसा और मजबूत होना ठीक है । पुरुषकी तरह स्त्रीको भी ज्ञानवान और आदर्श चरित्र होना दाम्पत्य सुखको सफल बनाना है। सौभाग्यसे हम-तुम दोनों ही इतने सुयोग्य निकले कि गृहस्थीरूपी रथको प्रायः मंजिलपर पहुंचा ही चुके हैं। गृहस्थीकी सबसे बड़ी अभिलाषा यही होती है-न्याय अन्याय मनुष्य सब इसीके लिये करता है कि औलाद हो और मैं उसका बढ़चढ़के विवाह कर दूं, जिससे वंशका नाम चलता रहे । हमारी तुम्हारी यह अभिलाषा पूर्ण हो चुकी है । इसलिये अपने परभवको सुधारना अब हम दोनोंको इष्ट होना चाहिये । मैं तुम्हें इस अव
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy