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________________ ८२] भगवान पार्श्वनाथ । पुद्गलका उल्लेख 'देवता' के रूपमें किया था तथापि पुद्गलाणुओंका मिलना और विघटना भी स्वीकार किया था। उपरान्त वरुण द्वारा तैतरीय मतका प्रारंभ हुआ था। उद्दालकने अग्नि, जल और पृथ्वी तीन ही द्रव्य माने थे, परन्तु वरुणके निकट वह आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी थे। ब्रह्मको ही इनने मुख्य और सर्वका प्रेरक माना था । तथापि वही उनके निकट अन्तिम ध्येय भी था जिसमें स्थाई आनन्दका उपभोग था। आत्मा का क्रयाशीलताके विषय में इनकी माश्यता महीना मम्मे थी मनुष्यक प्रत्येक कार्यमें आनन्दको ही इलने मुख्य माना था । म नुषिक आनन्दका प्रारंभ रमन्ना इन्द्रिय करके वह उसका अन्त ध्यानावस्थामें करते हैं। इसमें स्त्री, पुत्र. धन मम्पत्ते आदि को भी गिन लेने हैं। यह भी उनके निकट आनन्द के कारण हैं। रुणक सुपर बालाकि और अजातशत्रु उल्लेखनीय हैं। बालाकि एक ब्राह्मण और याज्ञवल्क्यका ३५मकालीन था । अनात. शत्रु मानपुत्र थे और विदेहके राजा जनक समयमें हुए थे। राजा जनक फलाफरोंके प्रेमी व संरक्षक थे और राजा अजातशत्रु छ फिला-फार थे । बालाकि और अनशनु स्वार्थ हुआ । मुख्य !:य आत्माका स्वरूप और जगत एवं अनुप्यने , उसका स्थान निर्णय करना था। बाला'क सूयमें आत्माका ध्यान करना उचित समझता था, पर अजातशत्रु उसे प्रकृति (Nature) का एक अंग ही मानता था। १-ए हिस्ट्री ऑफ प्री-बुद्ध० इन्ड. फिल. पृष्ट २४-१४७ । २-पूर्व प्रमाण पृ० १४३-१५० । ३-पूर्व० पृ. १५१-१५२ ।
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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