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________________ उस समयकी सुदशा । [ ४३ व्यापारकी अभिवृद्धि और दक्षिणभारतका दिग्दर्शन स्पष्टरीति से होता है । कहा गया है कि जब चारुदत्तने अपना सब धन वेश्याको खिला दिया, तब वह अपने मामा के साथ धन लेकर चम्पासे उलूखदेश के उशिरावर्त नामक शहरमें पहुंचा था। यहांसे कपास खरीदकर वह ताम्रलिप्त नगरको संभवतः उपर्युलिखित दूसरे मार्ग से गया था । रास्ते में भयंकर वनीमें आग लग जाने से इनकी सारी कपास नष्ट हो गई थी । वहांसे यह पवनद्वीपको गए थे, परन्तु लौटते समय दुर्भाग्य से इनका जहाज नष्ट होगया और यह समुद्र के किनारे लगकर किसी तरह राजगृह पहुंचे। वहां एक उज्जैनीका वणिक्पुत्र इनको मिला था जिसने सिंहलद्वीपमें व्यापार निमित्त जाकर धन नष्ट कर आनेवाली अपनी दुःखभरी कहानी कही थी। यहां से यह दोनों व्यक्ति रत्नद्वीपको धन कमाने के लिए चल पड़े थे । यहां इनको जैन मुनिका समागम हुआ था । यह सिंहलद्वीप और रत्नद्वीप विद्वानोंने लंका बतलाये हैं। सिंहल और रत्नद्वीप उसके नाम थे । इस प्रकार इस कथा में भी दक्षिण भारत के लम्बे छोरतक व्यापारियों के जानेका उल्लेख हमें मिलता है । यह संभव है कि साधारण पाठक उपरोक्त जैन कथाओं के कथनपर सहसा विश्वास न करें, परन्तु इसके लिए हम अन्य श्रोतों से भी इस बातको प्रमाणित करेंगे कि दक्षिणभारत में जैनधर्मका अस्तित्व बहुत पहले से रहा है और जैनों को वहांका परिचय भी उतना ही पुराना है। प्रोफेसर एम० आर० रामास्वामी अय्यंगरने राजावली कथेका विशेष अध्ययन किया है और उसके कथनको उन्होंने सत्य १ - आराधना कथाकोष भाग २ पृ० ८२-८६ ।
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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