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________________ [ ३७ कमठ और मरुभुला सका ! याद आगया और फिर चुके हैं । नीच आनन्दकुमार | भोगकर वह इसी वनमें सिंह हुआ था । अपने भूति भवके बंधे हुए वैरको वह यहां भी नहीं राजर्षिको देखते ही उसे अपना पूर्वभव जो उसने अधम कर्म किया, वह पाठक पढ़ ही केहरी इस अघके वशीभूत होकर पंचम नर्क में जाकर पड़ा ! शुभाशुभ कर्मो का फल प्रत्यक्ष है । शुभ कर्मोकर एक जीव तो उन्नति करता हुआ पूज्यपदको प्राप्त हो चुका और दूसरा अपनी आत्माका पतन करता हुआ नर्कवास में ही पड़ा रहा ! यह अपनी करनीका फल है ! आनन्दकुमार राजर्षि मरुभूतिके ही जीव थे और यही स्वर्गलोकसे आकर अपने दसवें भवमें त्रिजगपूज्य भगवान पार्श्वनाथ हुये थे | देवलोक में इन्होंने अपूर्व सुखों का उपभोग किया था । 1 इस तरह भगवान के पूर्व नौ भवोंका दिग्दर्शन है । इससे यह स्पष्ट है कि भगवानने उन सब आवश्यक्ताओं की पूर्ति कर ली थी, जो तीर्थंकर जन्म पानेके लिए आवश्यक होतीं हैं । एक तुच्छ जीव भी निरंतर इन आवश्यक्ताओं की पूर्ति कर लेनेसे रंकसे राव हो सक्ता है, यह भी इस विवरण से स्पष्ट है । कर्मसिद्धांत का कार्यकारी प्रभाव यहां दृष्टव्य है । अस्तु, अब अगाड़ी भगवान पार्श्वनाथके जन्मोत्सव संबंध में कुछ कहने के पहले हम यहां पर उस जमाने की परिस्थितिपर भी एक दृष्टि डाल लेंगे, जिससे उस समयका वातावरण कैसा था, यह मालूम हो जायगा ।
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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