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________________ चक्रवर्ती बज्रनामि और कुरंग भील। [२३ इस तरह इनका यह चौथा भव भी आपसी वैरका बदला चुकानेसे खाली न गया ! मुनिरानने समभावसे प्राण विसर्जन किये, इस लिये वह तो सोलहवें स्वर्गमें पहलेसे भी ज्यादा भोगोंके अधिकारी हुये, और कमठका जीव वह अनगर पापदोषके वशीभूत होकर छठे नर्कमें जाकर पड़ा, जहां दारुण दुःख भुगतने पड़ते हैं । तीव्र वैर बांधनेके परिणामसे उसे वारम्बार घोर यातनाओंका कष्ट सहन करना पड़ता रहा ! सचमुच क्रूर परिणामोंकी तीव्रता भव भवमें दुखदाई है ! जीवका यदि कोई सहाई और सुखकारी है तो वह एक धर्म ही है । कवि भी उसके पालन करनेका उपदेश देते हैं: " आदि अन्त जिस धर्मसौं सुखी होयं सब जीव । ताको तन मन वचन करि, रे नर सेव सदीव ॥" चक्रवर्ती वजनाभि और कुरंग भील ! "बीज राखि फल भोग, ज्यों किसान जग मांहि । सों चक्री नृप सुख करें, धर्म बिसारै नाहि ॥" ___ आजकल के लोगोंको संसारके एक कोनेका भी पूरा ज्ञान नहीं है । पाश्चात्य देशों के अन्वेषकों और विद्यावारिधियोंने जिन स्थानों और जिन बातोंकी खोन कर ली है, वह अभी न कुछके बराबर हैं । नित नये प्रदेश और नई २ बातें लोगोंके अगाड़ी आती हैं। परन्तु भारतके पूर्व इतिहासको देखते हुये हम उनमें कुछ भी नवीनता नहीं पाते हैं। भौगोलिक सिद्धान्तोंमें भी अब पश्चिम भारतके सिद्धान्तोंको माननेके लिये तैयार होता जारहा है । ऐसे
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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