SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कमठ और मरुभूति । [ ९ बुरा होता है, इसका सेवन करके किसने सुख उठाया है, जो तुम उससे उठाना चाहते हो ? रावणसे महाबली और पराक्रमीको इसी पापने मिट्टी में मिला दिया । इसलिए मेरा कहना मानो इस दुर्बुद्धिको छोड़ो। अपने कुत्सितभावों को शोध डालो, उनका समुचित प्रायश्चित ले लो ! कमठ- हाय! हाय! तुम भी मेरी बातको टालनेके लिये बहाने बना रहे हो । धर्मकी आड़ लेकर एक पंथ दो काज साध रहे हो । चाहते हो न मुझसे बिगाड़ हो और न मरुभूतिसे शिष्टाचार टूटे, पर कहीं ऐसा होसक्ता है ? धर्म कर्म सब देख लिए जायगे, अभी तो जीवन के लाले पड़े हुए हैं। जीवन रहेगा तो धर्म-कर्म सब कुछ कर लूँगा | प्यारे मित्र, जीवन रहे ऐसा उपाय करो । कैसे भी विसुन्दरीको मेरे पास ला दो ! कलहंस-हाय ! कामने तुम्हारी बुद्धिको बिल्कुल नष्टकर दिया है। कविका निम्न छंद तुम पर सोलह आने चरितार्थ होरहा है कि :"पिता नीर परसै नहीं, दूर रहे रवि यार । ता अंबुजमें मूढ़ अलि, उरझि मरे अविचार || त्योंही कुविसनरत पुरुष, होय अवस अविवेक । fed अनहित सोचै नहीं, हियै विसनकी टेक ॥" तुम्हें पाप कर्मका भय नहीं है; कार्य अकार्यकी सुध नहीं है; लोक लाजकी परवा नहीं है । विषयांघ होकर अपनी आत्माका घोर पतन कर रहे हो और चाहते हो उस पाप में मुझे भी शामिल करना । पर सखे, जरा विवेकसे काम लो - होश संभालो ! छोटे भाईकी स्त्रीको भ्रष्ट करके क्या तुम सुखी हो सकोगे ? भाई मरु -
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy