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________________ १२४ ] भगवान पार्श्वनाथ | 'प्रकट करते हुए अपने पूर्व वैरको दर्शा रहा था ! बह तड़प कर - बोला, " चल रहने दे | तू इस समय निरंतर होनेवाली सम्पत्ति से उन्मत्त है, अन्यथा और कोई मनुष्य मुनियोंसे ऐसे अनुचित शब्द "कैसे कह सक्ता है ?" यह कहकर वह राजकुमारसे विमुख होकर -शांति होती हुई अग्निको सुलगाने के लिए एक लक्कड़ फाड़ने लगा । - भगवान ने उसे बीच में ही रोक दिया और कहा ' यह अनर्थ मत करो । इस लक्कड़की खुखालमें अन्दर सर्पयुगल हैं । वह तुम्हारी - कुल्हाड़ी के आघात से मरणासन्न हो रहे हैं । तुम व्यर्थ में ही उनकी. हत्या किये डाल रहे हो । उन्हें आग में मत रक्खो ।' किन्तु भगवानके इन हितमई वाक्योंके सुनते ही वह तापस ताड़ित हाथीकी भांति गर्जने लगा । वह बोला, "हां, संसारमें तूही ब्रह्मा है, तूही विष्णु है, तूही महेश है, मानो तेरे चलाये ही दुनिया चल रही है । तूही बड़ा ज्ञानी है, जो यहां ऐसा उपदेश छांट रहा है । यहां मेरे लक्कड़ में नाग-नागिनी कहांसे आये ? मैं तेरा नाना और फिर तापस - तब भी तू मेरी अवज्ञा करते नहीं डरता है | "" आचार्य कहते हैं कि ' तपस्वी के कठोर वचन सुनकर भी त्रिलोकीनाथ भगवानको कुछ भी क्रोध न आया । वे हंसने लगे और - हाथमें कुल्हाड़ी ले अधजलती लकड़ीको उनने फाड़ डाला । जलती हुई अग्निकी उष्णतासे छटपटाते हुए नाग और नागिनीको जिनेन्द्र भगवानने बाहर निकाला और अपने अलौकिक तेजसे तपस्वीके - रूपको खंडबंडकर उसे क्रुद्ध कर दिया ।' (पार्श्वचरित ४० ३७१) उन नाग-नागिनीके दुःखसे भगवानका कोमल हृदय बड़ा ही
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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